Book Title: Kesarimalji Surana Abhinandan Granth
Author(s): Nathmal Tatia, Dev Kothari
Publisher: Kesarimalji Surana Abhinandan Granth Prakashan Samiti
View full book text
________________
-O
Jain Education International
४२८
कर्मयोगी श्री केसरीमलजी सुराणा अभिनन्दन ग्रन्थ : पंचम खण्ड
कवि ने प्रारम्भ में ही आगमों, अभिधानों, धातुओं और शब्द शासन से यह एकाक्षर नाम अभिधान किया है । इसमें क सेक्ष तक के व्यंजनों के अर्थ प्रतिपादन के बाद स्वरों के अर्थ को स्पष्ट किया है। इसमें कुल ४१ पद्य हैं ।
सुधाकलशमुनि : एकाक्षर नाममाला - इस कोश के प्रणेता सुधाकलश मुनि है । अन्तिम पथ में दिये गये इनके परिचय से पता चलता है कि ये 'मलधारिगच्छमती गुरु राजशेखरसूरि के शिष्य थे। इनके जीवन वृत्त के बारे में भी ज्यादा जानकारी प्राप्त नहीं हुई है ।
एकाक्षर नाममाला में ५० पद्य हैं । उपाध्याय सुन्दरगणि ने सं० १६४६ में अर्थ रत्नावली में इस कोश का नाम-निर्देश किया है। इसमें भी वर्णानुक्रम शब्द रचना का निर्देश किया है।
इस प्रकार अठारहवीं शती से पूर्व जैन कोशों की एक निरन्तर परम्परा रही। कुछ कोश अत्यन्त विशालकाय पाये गये तो कुछ लघुकाय ।
उपर्युक्त मुख्य कोशों के अतिरिक्त भी कुछ छोटे कोशों की रचना भी अठारहवीं शती से पूर्व हो चुकी थी । जिनमें कतिपय निम्न है
१. निघण्टु समय : धनंजय
३. अवधान चिन्तामणि अवचूरि : अज्ञात ५. शब्दचन्द्रिका
७. अव्ययेकाक्षर नाममाला सुधाकलशराणि ६. शब्दरत्नप्रदीप: कल्याणमल्ल ११. पंचकी संग्रह नाममाला मुनि सुन्दरसूरि
१३. एकाक्षर कोश : महाक्षपणक इत्यादि ।
२. अनेकार्थनाममाला : धनंजय
४. अनेकार्य संग्रह हेमचन्द्रसूरि
६. शब्दभेद नाममाला महेश्वर शब्द-संदोह संग्रह ताड़पत्रीय (अज्ञात) १०. गतार्थकोश : असंग
१२. एकाक्षरी नानार्थकाण्ड : धरसेनाचार्य
इन सभी कोश ग्रन्थों पर विभिन्न मनीषी विद्वानों ने टीकायें लिखी हैं, जिनमें निम्न मुख्य हैं
धनंजय नाममाला भाष्य अमरकीर्ति, अनेकार्थं नाममाला टीका अज्ञात, अभिधान चिन्तामणि वृत्ति, अभिधान चिन्तामणि टीका, व्युत्पत्ति-रत्नाकर, अभिधान चिन्तामणि अवचूरि, अभिधान चिन्तामणि बीजक, अभिधान चिन्तामणि नाममाला प्रतीकावली, अनेकार्थ संग्रह टीका, निघण्टु शेष - टीका इत्यादि । इस प्रकार ये सब कोश अठारहवीं शती तक रखे गये।
आधुनिक कोशों का आरम्भ उन्नीसवीं शती से माना जा सकता है। इन कोशों की रचना शैली का आधार पाश्चात्य विद्वानों द्वारा विरचित शब्दकोश रहे हैं। इन सदियों में भी जैन विद्वानों ने अमूल्य कोशों की रचना करके कोश साहित्य एवं परम्परा को आगे बढ़ाने में महत्त्वपूर्ण योगदान दिया है । आधुनिक मुख्य कोशकारों एवं कोशों का अति संक्षिप्त विवरण निम्न प्रकार है
-
विजयराजेन्द्र र अभिधानराजेन्द्र कोश इस कोश के प्रणेता विजयचन्द्रसूरि थे। इनका जन्म सं० १००३ (सन् १८२६ ) पोष शुक्ल गुरुवार को भरतपुर में हुआ था। आपके बचपन का नाम रत्नराज था। आप संवत् १९०३ में स्थानकवासी सम्प्रदाय में दीक्षित होकर 'रत्न विजय' बने । संवत १९२३ में आप मूर्तिपूजक सम्प्रदाय में दीक्षित हुए और 'विजयराजेन्द्रसूरि' नाम से आचार्य की पदवी प्राप्त की। आप अच्छे प्रवक्ता और शास्त्रार्थक थे । सन् १९०६ में राजगढ़ में आपका देहावसान हो गया । इस कोश ग्रन्थ की भूमिका में लिखा है इस कोश में अकारादि क्रम से अनुवाद फिर व्युत्पत्ति, लिंग निर्देश तथा जैन आगमों के अनुसार उनका की सबसे बड़ी विशेषता यह है कि जैन आगम
आचार्य विजयचन्द्रसूरि ने स्वयं प्राकृत शब्द, तत्पश्चात् उनका संस्कृत में अर्थ प्रस्तुत किया गया है। इस फोन जो इस महाकोश में न आया हो। अत: मात्र इस कोश को देखने से ही जैन आगमों का बोध हो जाता है।
का कोई भी विषय न रहा
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org.