Book Title: Kesarimalji Surana Abhinandan Granth
Author(s): Nathmal Tatia, Dev Kothari
Publisher: Kesarimalji Surana Abhinandan Granth Prakashan Samiti
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जैन ज्योतिष : प्रगति और परम्परा
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जैन विद्वानों का ज्योतिषशास्त्र के क्षेत्र में अविस्मरणीय गोगदान रहा है। जैन-ज्योतिष की परम्परा तीर्थंकरों के काल से प्रारम्भ होती है। यह काल वैदिककाल के समान्तर अथवा उससे कुछ परवर्ती प्रमाणित होता है। पहले के तीर्थंकरों की वाणी अब उपलब्ध नहीं है। उस काल का जैन साहित्य 'पूर्व' संज्ञा से अभिहित किया जाता है। उपलब्ध आगम-साहित्य चौबीसवें तीर्थंकर महावीर की वाणी के रूप में प्राप्त है। उसी को गणधरों और प्रतिगणधरों ने संकलित कर व्यवस्थित किया तथा विभिन्न आचार्यों ने इसके आधार पर अनेक शास्त्रों की रचना की।
'आगम' शब्द समन्तात् या सम्पूर्ण अर्थ में प्रयुक्त 'आ' उपसर्गपूर्वक गति प्राप्ति के अर्थ में प्रयुक्त 'गम्' धातु से निष्पन्न होता है । इसका तात्पर्य वस्तुतत्त्व या यथार्थ का पूरा ज्ञान ऐसा होता है। आप्त का कथन ही आगम है। इससे उचित शिक्षा मिलती है। जैन ग्रन्थों में आगम को ही 'श्रुत' और 'सूत्र' भी कहते हैं।
जैन धर्म की श्वेताम्बर और दिगम्बर परम्पराओं में आगम साहित्य के अस्तित्व के सम्बन्ध में मतभेद है। दिगम्बर परम्परा आगम साहित्य को विच्छिन्न या लुप्त मानती है । श्वेताम्बर परम्परा में केवल बारहवें अंग 'दृष्टिवाद' को विलुप्त माना गया है।
इस प्रकार जैन आगम साहित्य को तीन आधारों पर वर्गीकृत किया गया है। सर्वप्रथम 'समवायांग' में इसे दो भागों में बांटा गया है-'पूर्व' और 'अंग' । 'पूर्व' १४ थे-उत्पाद, आग्रायणीय, वीर्यानुप्रवाद, अस्ति-नास्ति-प्रवाद, ज्ञानप्रवाद, सत्यप्रवाद, आत्मप्रवाद, कर्मप्रवाद, प्रत्याख्यानप्रवाद, विद्यानुवाद, कल्याणवाद, प्राणावाय, क्रियाविशाल, लोकबिन्दुसार । पूर्व साहित्य महावीर से पहले का होने के कारण इसे 'पूर्व' कहा जाता है। कालान्तर में इसको अंगों में ही समाविष्ट कर लिया गया । 'दृष्टिवाद' नामक बारहवें अंग में एक विभाग 'पूर्वगत' है। इसी 'पूर्वगत' में चौदह पूर्वो का अन्तर्भाव किया गया है।
'अंग' बारह हैं । ये आगम साहित्य के मुख्य ग्रन्थ हैं। ये अंग हैं-आचार, सूत्रकृत, स्थान, समवाय, भगवती, ज्ञातृधर्मकथा, उपासकदशा, अन्तकृतदशा, अनुत्तरोपपातिक, प्रश्नव्याकरण, विपाक, दृष्टिवाद ।
आगमों का द्वितीय वर्गीकरण 'नंदीसूत्र' (४३) में मिलता है। इसमें आगमों के दो वर्ग किये गये हैं-अंगप्रविष्ट और अंगबाह्य । जो गणधर द्वारा सूत्ररूप में बनाये गये हैं, जो गणधर द्वारा प्रश्न करने पर तीर्थंकर द्वारा प्रतिपादित हैं और जो शाश्वत सत्यों से सम्बन्धित हैं, उनको 'अंगप्रविष्ट' आगम कहते हैं । जो स्थविर (मुनि) कृत हैं उनको 'अंगबाह्य' कहते हैं।
___ नंदीसूत्र में 'अंगबाह्य' के आवश्यक, आवश्यक-व्यतिरिक्त, कालिक और उत्कालिक रूप में चार भेद किये गये हैं।
____ 'अंगप्रविष्ट' आगम प्राचीन और मूलभूत माने जाते हैं। इनके मूलवक्ता तीर्थकर और संकलनकर्ता गणधर होते हैं । पूज्यपाद ने 'सर्वार्थसिद्धि' (१/२०) में वक्ता के तीन भेद बताये हैं—तीर्थकर, श्रुतकेवली और आरातीय । अकलंक के अनुसार आरातीय आचार्यों की रचनाएँ अंगप्रतिपादित अर्थ के समीप और अनुरूप होने के कारण 'अंगबाह्य' कहलाती हैं (तत्त्वार्थराजवार्तिक १।२०)। 'अंगप्रविष्ट' आगम-ग्रन्थों को ही आचारांग आदि १२ 'अंग' भी कहते हैं।
श्वेताम्बर और दिगम्बर दोनों परम्पराएँ आगमों के अंगप्रविष्ट और अंगबाह्य वर्गों को मानती हैं।
आगमों का तीसरा वर्गीकरण आचार्य आर्यरक्षित ने किया। उन्होंने अनुयोगों के आधार पर आगमों के चार विभाग किये हैं-(१) चरण-करणानुयोग (कालिकश्रुत, महाकल्प, छेदश्रुत आदि), (२) धर्मकथानुयोग (ऋषिभाषित, उत्तराध्ययन आदि), (३) गणितानुयोग (सूर्यप्रज्ञप्ति आदि), (४) द्रव्यानुयोग (दृष्टिवाद आदि) । (आवश्यक नियुक्ति ३६३-३७७) । दिगम्बर परम्परा में आगमों को लुप्त माना गया है। इस परम्परा में अंगप्रविष्ट और अंगबाह्य ग्रन्थों
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