Book Title: Kesarimalji Surana Abhinandan Granth
Author(s): Nathmal Tatia, Dev Kothari
Publisher: Kesarimalji Surana Abhinandan Granth Prakashan Samiti
View full book text
________________
३६२
कर्मयोगी भी केसरीमलजो सुराणा अभिनन्दन प्रन्थ : पंचम खण्ड
निधिनन्दार्वभूवर्षे, सदानन्दसुधीमुदे।
सिद्धान्तचन्द्रिकावृत्ति कृदन्ते कृतवानुजुम् ॥३१॥११६. यह वृत्ति ग्रन्थ है।
अनिट्कारिकावरि-इसके प्रणेता मुनि क्षमामाणिक्य थे। बीकानेर के श्रीपूज्यजी के भण्डार में इसकी हस्तलिखित प्रति विद्यमान है।
सिद्धान्तचन्द्रिकावृत्ति-खरतरगच्छीय मुनि विजयवर्धन के शिष्य ज्ञानतिलक ने १८वीं शताब्दी में इसकी रचना की। इसके हस्तलेख बीकानेर के महिमा भक्ति भण्डार और अबीरजी के भण्डार में विद्यमान हैं।
भूधातुवृत्ति-इस वृत्ति की रचना खरतरगच्छीय क्षमाकल्याणमुनि ने वि० सं० १८२८ में की है। राजनगर के महिमा-भक्ति भण्डार में इसका हस्तलेख प्राप्त है।
सिद्धान्तवन्द्रिकाटीका-आचार्य जिनरत्नसूरि द्वारा इसका प्रणयन किया गया है।
सुबोधिनी-३४६४ श्लोक परिमाण की इस वत्ति का प्रणयन खरतरगच्छीय रूपचन्द्र ने किया है। बीकानेर के भण्डार में इसकी प्रतियाँ विद्यमान हैं।
___औक्तिक रचनाएँ-कुछ जैनाचायों ने गुजारती भाषा द्वारा संस्कृत का शिक्षण देने के लिए भी व्याकरण ग्रन्थों की रचना की। ऐसे ग्रन्थों को “औक्तिक" संज्ञा प्रदान की गई। इस प्रकार के कुछ ग्रन्थ उपलब्ध होते हैं, जो निम्न हैं-- १. मुग्धावबोध औक्तिक
इस ग्रन्थ की रचना कुलमण्डनसूरि ने १५वीं शताब्दी में की है। इस औक्तिक ग्रन्थ में ६ प्रकरण केवल संस्कृत भाषा में हैं। प्रथम, द्वितीय, सातवें और आठवें प्रकरणों में सूत्र और कारिकाएँ संस्कृत में हैं और विवेचन जूनीगुजराती में है। तृतीय, चतुर्थ, पंचन, षष्ठ और नवन प्रकरण जूनी गुजराती में हैं। इसमें विभक्ति विचार, कृदन्त विचार, उक्तिभेद और शब्दों का संग्रह है। २. वाक्यप्रकाश
__वृहत्तपागच्छीय रत्नसिंह मूरि के शिष्य उदयवर्धन ह वि० सं० १५०७ में वाक्य प्रकाश नामक औक्तिक ग्रन्थ की रचना की। इसमें १२८ पद्य हैं। इसका उद्देश्य गुजराती द्वारा संस्कृत भाषा सिखाना है। इसलिए यहाँ कई पद्य गुजराती में देकर उसके साथ संस्कृत में अनुवाद दिया गया है। इस ग्रन्थ पर वि० सं० १५८३ में हर्षकुल द्वारा, सं० १६६४ में जिनविजय द्वारा तथा रत्नसूरि द्वारा टीका लिखी गई। ३. उक्तिरत्नाकर
पाठक साधुकीर्ति के शिष्य साधुसुन्दरमणि ने वि० सं० १६८० के आसपास उक्तिरत्नाकर ग्रन्थ की रचना की। अपनी देश भाषा में प्रचलित देश्य-रूपवाले शब्दों के संस्कृत प्रतिरूपों का ज्ञान कराने के लिए इस ग्रन्थ की रचना की गई। इसमें कारक का ज्ञान कराने का भी प्रयास किया गया है। ४. उक्तिप्रत्यय
मुनि धीरसुन्दर ने इस ग्रन्थ की रचना की है। इसकी हस्तलिखित प्रति सूरत के भण्डार में है। यह ग्रन्थ अप्रकाशित है। ५. उक्तिव्याकरण
इसकी रचना किसी अज्ञात विद्वान् ने की है। सूरत के भण्डार में इसकी हस्तलिखित प्रति विद्यमान है।
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org