Book Title: Kesarimalji Surana Abhinandan Granth
Author(s): Nathmal Tatia, Dev Kothari
Publisher: Kesarimalji Surana Abhinandan Granth Prakashan Samiti
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कर्मयोगी श्री केसरीमलजी सुराणा अभिनन्दन ग्रन्थ : पंचम खण्ड
देवेन्द्रमुनि ने बालग्रचिकित्सा पर ग्रन्थ लिखा था। श्रीधरदेव (१५०० ई०) ने 'वैद्यामत' की रचना की थी। इसमें २४ अधिकार हैं। बाचरस (१५०० ई०) ने 'अश्ववैद्यक' की रचना की। इसमें अश्वों की चिकित्सा का वर्णन है । पद्मरस या पद्मण्ण पण्डित ने १६२७ ई० में 'हयसारसमुच्चय' (अश्वशास्त्र) नामक ग्रन्थ की रचना की थी। इसमें घोड़ों की चिकित्सा बतायी गई है । रामचन्द्र और चन्द्रराज ने अश्ववैद्यक, कीर्तिमान ने गोचिकित्सा, वीरभद्र ने पालकाप्प के हस्त्यायुर्वेद की कन्नड़ टीका, अमृतनन्दि ने वैद्य कनिघण्टु नामक शब्दकोश, साल्व ने रसरत्नाकर और वैद्यसांगत्य, जगदेव ने महामन्त्रवादि नामक ग्रन्थ की रचना की थी।
तमिल आदि भाषाओं में जैन वैद्यक ग्रन्थों का संकलन नहीं हो पाया है। कर्नाटक के प्राचीनतम साहित्य के बाद गुजरात का अनुक्रम प्राप्त होता है । सौराष्ट्र के ढंकगिरि (धन्युका) में पादलिताचार्यसूरि का निवास था। इनका काल ३ से ४थी शती माना जाता है। इन्हें रसायनविद्या में सिद्धि प्राप्त थी। इनके शिष्य नागार्जुन हुए। इन्होंने ही वलभी में एक मुनि-सम्मेलन बुलाकर आगमों का पाठ संकलित कराया था। ये ही आगमग्रन्थ आज तक प्रचलित हैं । इनको भी रसायनसिद्धि प्राप्त थी। इनको उत्तरीभारत में रसायनविद्या का प्रारम्भ और उत्कर्ष किये जाने का तथा रसायनचिकित्सा का प्रचलन करने का श्रेय प्राप्त है।
पण्डित गुणाकरसूरि नामक श्वेताम्बर साधु ने नागार्जुन द्वारा विरचित 'आश्वयोगमाला' पर सं० १२१६ (ई. सन् ११५६) में संस्कृत टीका-वृत्ति लिखी थी।
ई० सन् १६६६ के लगभग तपागच्छीय साधु हर्षको ति सूरि ने 'योगवितामणि' नामक प्रसिद्ध चिकित्साग्रन्थ की रचना की थी। इसमें योगों का संग्रह है। इसमें फिरंगरोग और कबाबवीनी का उलेख मिलता है।
तपागच्छीय कनक के शिष्य नर्बुदाचार्य या नर्मदाचार्य ने संवत् १६५६ में 'कोककला चौपई' नामक कोकशास्त्र (कामशास्त्र) पर गुजराती में पद्यबद्ध ग्रन्थ लिखा था।
श्रीकंठसरि नामक जैन आचार्य ने 'हितोपदेश' नामक पथ्यापथ्य सम्बन्धी ग्रन्थ लिखा है। मेहतुंग नामक जैन साधु ने ई० १३८६ में एक प्राचीन रसग्रन्थ 'कंकालीयरसाध्याय' पर संस्कृत टीका लिखी थी। माणिक्यचन्द्र जैन ने 'रसावतार' नामक रसग्रन्थ की रचना की । नयनरोबर अंवलगच्छीय पालीताणा शाखा के वैद्यकविद्या में निष्णात मुनि थे। इन्होंने संवत् १७३६ में 'योगरत्नाकरचौपई' नामक गुजराती चौपई पद्यों में लिखित वैद्यकग्रन्थ की रचना की थी। यह बहुत बड़ा और उपयोगी ग्रन्थ है । केसराज के पुत्र श्रावक नयनसुख ने संवत् १६४६ में 'वैद्यभनोत्सव' नामक प्रसिद्ध ग्रन्थ की रचना की थी। तपागच्छीय लक्ष्मीकुशल ने संवत् १६६४ में 'वैद्यकसाररत्न-प्रकाश' नामक ग्रन्थ ईडर के पास ओडा नामक ग्राम में रचा था। कच्छक्षेत्र के अन्तर्गत अंजार नगर के निवासी आगमगच्छ के साधु कवि विश्राम ने विपोपविष-शान्ति, धातुशोधनकारण और रोगानुपान के सम्बन्ध में संवत् १८४२ में 'अनुपान-मंजरी' और व्याधियों की चिकित्सा पर संवत् १८३८ में 'व्याधिनिग्रह' नामक ग्रन्थ की रचना की।
राजस्थान में सबसे अधिक वैद्यक ग्रन्थों का प्रणायन हुआ था। पण्डित आशाधर नामक जैन श्रावक ने ई० १२४० के लगभग अष्टांग हृदय पर उद्योतिनी नामक संस्कृत टीका लिखी थी। यह सपादलक्षक्षेत्र के मांडलगढ़ जिला भीलवाड़ा राजस्थान के निवासी थे, जो बाद में मुहम्मद गोरी के अजमेर पर आधिपत्य कर लेने पर मुस्लिम आक्रमणों में त्रस्त होकर मालवा के शासक विंध्यवर्मा की धारानगरी में रहने लगे थे। बाद ये नालछा में बस गये। इनका यह टीकाग्रन्थ अब उपलब्ध नहीं है। पीटर्सन ने अपनी सूवी में इसका उल्लेख किया है। सम्भवतः खरतरगच्छीय वर्द्धमान सूरि के शिष्य हंसराज मुनि ने १७वीं शती में भिषक्रचितोत्सव' नामक रोगानिदान सम्बन्धी संस्कृत में श्लोकात्मक ग्रन्थ लिखा था। इसे 'हंसराजनिदानम्' भी कहते हैं। कृष्णवैद्य के पुत्र महेन्द्र जैन ने वि० सं० १७०६ में धन्वन्तरिनिघण्टु के आधार पर उदयपुर में 'द्रव्यावली समुच्चय' ग्रन्थ की रचना की थी। यह द्रव्यगुणशास्त्र सम्बन्धी ग्रन्थ है । तपागच्छीय हस्तिरुचिगणि ने सं० १७२६ में संस्कृत में 'वैद्यवल्लभ' नामक रोगचिकित्सा सम्बन्धी ग्रन्थ रचा
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