Book Title: Kesarimalji Surana Abhinandan Granth
Author(s): Nathmal Tatia, Dev Kothari
Publisher: Kesarimalji Surana Abhinandan Granth Prakashan Samiti
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DISISION
कर्मयोगी श्री केसरीमलजी सुराणा अभिनन्दन ग्रन्थ : चतुर्थ खण्ड
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समय शाश्वत है, जो सदा था, और सदा रहेगा और उसकी धाराओं में सब चीजें बनेंगी व मिटेंगी, पर समय की धारा अविच्छिन्न रहेगी । संभवतः इसलिये आत्मा या चेतना का एक नाम 'समय' भी दिया गया है, जो उसके शाश्वत, सनातन, अनादि, अनन्त, तत्व होने का द्योतक मात्र है । हम आमतौर पर समय के तीन भाग करते हैं, अतीत, वर्तमान व भविष्य, लेकिन यह विभाजन कृत्रिम एवं गलत है, क्योंकि अतीत सिर्फ स्मृति में है और कहीं भी नहीं है व इसी तरह भविष्य केवल कल्पना में है और कहीं नहीं है और है तो सिर्फ वर्तमान इसलिये समय का एक ही अर्थ हो सकता है, वर्तमान ; जो है वही समय है और यह चेतना के अन्तिम खण्ड का अणु है और वो इतना सूक्ष्म है कि हम यदि प्रतिक्षण सजग न रहें तो उसका बोध होते ही वह अतीत का अंग बन जाता है और हम उस अणु से वंचित हो जाते हैं । ऐसी स्थिति में हमारा चित्त इतना शान्त और निर्मल बन जाए कि हम वर्तमान के छोटे से अणु की झलक पा लें और जिस क्षण हमने इसे स्थिर कर दिया कि हम अपने अस्तित्व से परिचित हो गए, समय के दर्शन के साथ ही आत्मा को उपलब्ध हो गए, उससे साक्षात्कार कर लिया । मन संग्रह है, अतीत और भविष्य का जो नहीं है और बीच की सूक्ष्म रेखा वर्तमान को पाने के लिए, शान्त चित्त होना आवश्यक है। अतः निर्विचारिता के साथ-साथ हमारी महायात्रा का अगला चरण अतीत और भविष्य की भयावही अन्धेरी, गहन घाटियों को पारकर, वर्तमान के राजमार्ग पर अब - स्थित हो जाय व समय को स्थिर कर दें, तभी हमारी यात्रा सुगम हो सकती है।
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निविचारिता व समयातीतता या स्थिरयोग की प्राप्ति के बाद, तीसरा और सबसे भयंकर अवरोध जी हमारे सामने अन्तर् यात्रा के बीच में, मुँह बाए खड़ा रहता है, वह है अहं की चट्टान । हमारे अपने अहं से ही सारे विकारों एवं कषायों का प्रजनन होता रहता है और जब तक अहं की चट्टान को तोड़कर हम अहंशून्यता में प्रवेश नहीं कर पाते तब तक आत्मा से साक्षात्कार लगभग असम्भव हो जाता है । अहं में जहाँ अवरोध उत्पन्न होता है वहाँ फोध प्रकट हो जाता है, जिसका स्वाभाविक परिणाम होता है-प्रतिशोध, हिंसा, संघर्ष, युद्ध आदि जो अपनी पूरी विभीषिका में समूची मानव जाति का विनाश करने की सम्भावना रखते हैं। अहं को पोषण करने वाली वृत्ति का नाम लोभ है, जिसके धरातल पर तृष्णा की विष बेल फैलती है और माया के लुभावने किन्तु आत्मघाती फल पैदा करती है । अहं का बाह्य स्वरूप अभिमान, ममता, आसक्ति, घृणा, द्वेष में परिलक्षित होता है। लाखों-करोड़ों की सम्पदा का एक ही बार में त्याग कर देने वाले, अपने पुत्र-पुत्री एवं भरे-पूरे परिवार से अलग होने वाले व वर्षों संन्यास की साधना करने वाले, अकिंचन ऋषि-मुनि भी अहं से अपने को मुक्त नहीं कर पाते। वे भी अपने शिष्यों व धारणाओं का मोह नहीं छोड़ पाते । यश कामनाएं उनको भी घेरे रहती हैं। परिणाम यह होता है कि शिष्यों के संग्रह व यशलिप्सा की वृद्धि में, उनकी लोकेषणा कम नहीं हो पाती और उनके त्याग में वैभव का अनुराग ही छिपा रह जाता है और इस कारण से न तो वे अहं का पाषाण ही तोड़ पाते हैं और न आत्मा के आनन्द का निर्झर ही उनमें फूट कर प्रवाहित हो पाता है । मान-अपमान की भावना से कोई विरला ही व्यक्ति अछूता रह पाता है। बड़े-बड़े साधु-सन्त अपनी प्रशंसा व दूसरों की निन्दा में रस लेते हैं और उनकी किंचित् सी निन्दा उनके सामने इतर सम्प्रदाय या मत के दूसरे साधु-सन्तों की प्रशंसा से उनके चेहरे पर रोष की रेखा खिंच जाती है, तब लगता है कि अहं की चट्टान को तोड़ने में वे असमर्थ और असहाय हो गए हैं । जब तक अहं नहीं छूटता तब तक वे उस नाव की तरह भटकते रहते हैं जो लंगर से बंधी होने के कारण घण्टों पानी में घूमती फिरती है व किसी किनारे तक नहीं पहुँच पाती और एक ही परिधि में चक्कर खाती रहती है। इसलिये चेतना से मिलने की दिशा में बढ़ते चरणों को न केवल विचारों की सघन आक्रामक भीड़ चीरनी पड़ती है या अतीत व भविष्य की गहन घाटियों को ही पार करना पड़ता है बल्कि उनको अहं की चट्टान को भी विदीर्ण करना पड़ता है और तभी व्यक्ति आत्मानन्द के झरते - बहते निर्झर में चेतना की अनुभूति प्राप्त कर सकता है और वस्तुतः जो वह है उसमें उसका मिलन हो जाता है। अतः स्वयंसिद्धि या स्वानुभूति के उपरोक्त तीन निविचारिता, समयातीतता अहंन्यता निश्चित सोपान हैं, जिनके माध्यम से हम अपना गन्तव्य प्राप्त कर सकते हैं।
मेरा अपना अनुभव है कि व्यापक एवं सहज ध्यान की प्रक्रिया से ऋजुता या निर्मल चित्त के धरातल पर
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