Book Title: Kesarimalji Surana Abhinandan Granth
Author(s): Nathmal Tatia, Dev Kothari
Publisher: Kesarimalji Surana Abhinandan Granth Prakashan Samiti
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स्वानुभूति की ओर : अन्तर्यात्रा
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निर्विचारिता, समयातीतता व अहंशून्यता की ओर, हमारे चरण क्रमशः बढ़ते जायँ तो उस यात्रा की अवधि में ही हमको कुछ ऐसे छोटे-मोटे अनुभव स्वतः होते जाएँगे, जिनकी आसानी से कल्पना नहीं की जा सकती, पर जिनके लिये विशेष प्रयास करना अपेक्षित ही नहीं रहता। शान्त एवं निर्मल चित्त की साधना के अविरल एवं व्यापक ध्यान की प्रक्रिया में, व्यक्ति न केवल अपने इस जन्म की घटनाओं को ही स्मृति में ला सकता है, बल्कि अपने पूर्वजन्म की घटनाओं को भी साक्षात् जान सकता है। 'जातिस्मरणज्ञान' की विश्रुत विधा हमारे निर्मल चित्त का ही सहज परिणाम है जो अन्तर दर्शन के साथ-साथ किसी भी प्रबुद्ध व्यक्ति को सरलता से प्राप्त हो सकती है। जन्म से पूर्व के जीवन की स्मृति, हमारे वर्तमान जीवन की कई रहस्यपूर्ण गुत्थियों को सुलझाने व समझने में सहायक हो सकती है और इस अर्थ में, पूर्वजन्म-स्मृति हमारी अपनी अन्तर्यात्रा में महत्त्वपूर्ण योगदान दे सकती है। पूर्वजन्म की स्मृति केवल वैचारिक या बौद्धिक स्तर पर हो सकती है, यह बात निश्चित है। इसकी क्या सीमाएँ हैं और इस क्रम में कब कहाँ रुकना आवश्यक तथा अनिवार्य हो जाता है ? वो इस प्रयोग में क्या ? बाधाएँ क्यों आ जाती है ? यह स्वयं में एक विस्तृत विवेचन का विषय है पर यहाँ इतना कहना ही पर्याप्त होगा कि पूर्वजन्म की स्पष्ट संस्मृति सम्भव है और इसे विशेष श्रमसाध्य उपलब्धि के रूप में या आश्चर्यपूर्ण तरीके से देखना या कहना न तो सही होगा और न उचित है।
व्यापक ध्यान की सहज प्रक्रिया में, जब हमारी यात्रा चेतना की ओर प्रारम्भ हो जाती है, तब हमारे भावों में एक अपूर्व जागरण आ जाता है और इन्द्रियों व मन से परे, हम अपने हृदय, प्राण, भावों में जिसकी चाह करते हैं, वह प्राप्त हो जाती है। यह तो निश्चित है कि अन्तर्यात्रा में चलने वाला व्यक्ति कभी पदार्थ की चाह या कामना तो रखना नहीं चाहेगा पर कभी-कभी वह विराट चेतना की अनुभूति के अंश को साक्षात् करने की जिज्ञासा में उन महापुरुषों के (चाहे वे भगवान, तीर्थकर, गुरु, महात्मा, किसी भी नाम से पुकारे जाते हों) दर्शन करने की इच्छा रख लेता है और जिस महापुरुष की चेतना से वह अपनी निकटता महसूस करता है, उसको देखने व उससे प्रेरणा प्राप्त करने की उसकी स्वाभाविक कामना बन जाती है। इस शुभेच्छा के परिणामस्वरूप निर्मल चित्त की आराधना करने वाला व्यक्ति अपने भावों में अपने आराध्य का दर्शन कर लेता है, और कभी-कभी तो ऐसा स्पष्ट प्रतीत होता है कि हमारे इष्टदेव हमारे समक्ष, मुदितमना आशीर्वाद देने की मुद्रा में, साक्षात् उपस्थित हैं और हमारी सारी दुश्चिन्ताएँ मात्र उनके दर्शन से ही दूर हो जाती हैं । मेरा तो अपना अनुभव यह है कि हमारी इच्छा मात्र से ही हमारे आराध्य देव की चेतना, अपनी दैहिक छवि में, प्रकट होकर हमारी समस्याओं का निराकरण स्वत: कर देती है । वस्तुत: वे क्षण बहुत ही सुखद एवं आह्लादपूर्ण होते हैं । बौद्धिक विश्लेषण के आधार पर तो यह अनुभव शब्दों में अभिव्यक्त करना सम्भव नहीं है. पर जिसने अपने भावों में अपने आराध्यदेव को सम्पूर्ण रूप में रमा लिया है और जिसका चित्त निस्तरंग झील की तरह बनना आरम्भ हो गया है, उसे अपने इच्छित आराध्यदेव के दर्शन निश्चितरूप से स्मरण करते ही हो सकते हैं व उसकी अन्तर्यात्रा को सुगम बना सकते हैं।
जातिस्मरण ज्ञान व भाव-दर्शन के साथ-साथ विचारों के सम्प्रेषण का कार्य भी उनके लिये सहज सुलभ हो जाता है, जो निर्मल चित्त बनाने की प्रक्रिया में अवरोधों को पार करने का संकल्प लेकर चेतना से मिलने की दिशा में चल पड़े हैं। मनोवैज्ञानिक भी इस बात को स्वीकार करने लगे हैं कि विचारों की तरंगें विकीर्ण कर हम दूसरों तक पहुँचा सकते हैं तो इसमें संशय करने की तो कोई गुंजाइश नहीं रह गई है कि विचारों का संप्रेषण सम्भव नहीं है । चेतना की ओर उन्मुख यात्री के लिये, यह प्रयोग कभी-कभी उस समय आवश्यक हो जाता है, जब वह शरीर और वाणी से निवृत्ति और नि:शब्दता की तरफ बढ़ने लग जाता है और उसके मन की प्रवृत्ति ही मुक्त रहती है, तब वह अपने विचारों के माध्यम से, अपने आवश्यक कार्य कर लेता है या अन्य लोगों को प्रभावित कर या करा लेता है। अपने से गुरुतर व्यक्तियों से प्रेरणा प्राप्त करने या अपने परिपार्श्व को परिष्कृत कर शुद्ध वातावरण का निर्माण करने व इसी से अपनी यात्रा को सुलभ बनाने की दिशा में, जब-जब यह प्रयोग आवश्यक होता है, तब-तब साधक इसका सफलतापर्वक प्रयोग लेता है, और इसके लिये उसे आश्चर्यकारी कहने की आवश्यकता नहीं है, पर इतना अवश्य सही
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