Book Title: Kesarimalji Surana Abhinandan Granth
Author(s): Nathmal Tatia, Dev Kothari
Publisher: Kesarimalji Surana Abhinandan Granth Prakashan Samiti
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जैन मुनि और वस्त्र-परम्परा - मुनि श्रीचन्द्र 'कमल' (युगप्रधान आचार्य श्री तुलसी के शिष्य)
मुनि के वस्त्रों के सम्बन्ध में दो परम्पराएं हैं। एक परम्परा मुनि को वस्त्र धारण करने का निषेध करती है और दूसरी उसका विधान । एक परम्परा के अनुयायी अपने को दिगम्बर मानते हैं और दूसरी के अनुयायी श्वेताम्बर । प्रथम आचारांग के आठवें अध्ययन में वस्त्रों की चर्चा है। वहाँ मुनि के लिए तीन वस्त्र, दो वस्त्र, एक वस्त्र और अचेलता का विधान है। वस्त्रों के ये चार विभाग यथेच्छ नहीं है, इनके पीछे साधना की विस्तृत प्रक्रिया है। वस्त्र के साथ पात्र, आहार विधि, चर्या तथा पण्डितमरण का दिग्दर्शन है। ऐसा मानना चाहिए कि वस्त्रों के ये चार विभाग साधना की चार भूमिकाएँ हैं।
साधना के अभ्यास से कष्ट-सहिष्णुता बढ़ती है। सहिष्णुता से आत्म-शक्ति जागृत होती है और उससे साधना का स्तर ऊँचा उठता है। ज्यों-ज्यों साधना सधती जाती है, वस्त्रों का अल्पीकरण होता जाता है, या यों कहना चाहिए कि वस्त्रों के अल्पीकरण या त्याग से लाघव आता है। बाह्य परीषहों को सहने की क्षमता बढ़ती है।
सहिष्णुता से आन्तरिक वृत्तियों में भी लघुता आती जाती है। इसीलिए अप्रत्यक्ष रूप से वस्त्रों का साधना के साथ सम्बन्ध जुड़ जाता है। टीकाकार के अनुसार प्रथम भूमिका में साधना करने वाले प्रतिमा-स्वीकृत स्थविर मुनि होते हैं। इस भूमिका में साधना करने वाले प्रतिमा-स्वीकृत मुनि के लिए तीन वस्त्रों का कल्प है। सामान्यतः ग्रीष्म ऋतु में साधक को अचेल रहने का विधान है। साधना की परिपक्वता न हो तो वह एक वस्त्र रख सकता है । शीत-ऋतु में शीत जब चढ़ता है तो दूसरा सूत का वस्त्र ले सकता है। वस्त्र का आयाम और विष्कम्भ ढाई हाथ का होता है। शीत की मात्रा और बढ़ती है तो साधक एक ऊन का वस्त्र फिर स्वीकार कर सकता है। इस पर भी शीत सताए तो उसे सहन करता है, लेकिन चौथे वस्त्र की इच्छा नहीं करता। शीत-ऋतु का जब उतार होने लगे तो उस समय वह सान्तरोत्तर या अधोचेलक हो जाता है। याने क्रमशः वस्त्रों का त्याग करता चला जाता है। पुराने जीर्ण वस्त्रों को परठ देता है, मजबूत को पास में रख लेता है। अचेलक बनने में सक्षम हो तो अचेलता स्वीकार करता है, अन्यथा एक वस्त्र पास में रख सकता है, यहाँ अचेलता का अर्थ कटिबंध से है।
इस भूमिका के साधकों में निम्न प्रतिज्ञाएँ होती हैं
१. कोई यह प्रतिज्ञा करता है कि मैं दूसरे साधकों को आहार आदि लाकर दूंगा और उनके द्वारा लाया गया आहार आदि लूंगा।
२. कोई यह प्रतिज्ञा लेता है कि मैं दूसरों को आहार आदि लाकर दूंगा पर उनके द्वारा लाया गया स्वीकार नहीं करूंगा।
३. कोई यह प्रतिज्ञा लेता है कि मैं दूसरों को आहार आदि लाकर नहीं दूगा पर उनके द्वारा लाया गया आहार स्वीकार करूगा ।
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