Book Title: Kesarimalji Surana Abhinandan Granth
Author(s): Nathmal Tatia, Dev Kothari
Publisher: Kesarimalji Surana Abhinandan Granth Prakashan Samiti
View full book text
________________
२७२
कर्मयोगी श्री केसरीमलजी सुराणा अभिनन्दन ग्रन्थ : चतुर्थ खण्ड
..........
....
........
............
....
......
......
............
..........
...
आगमकाल में अनुयोग के अन्तर्गत समस्त वाङ्मय आ जाता था। पहले जैनागम अनुयोग के रूप में विभक्त नहीं थे। वीर निर्वाण छठी शताब्दी में (५८४ से ५६७) वज्र स्वामी के प्रमुख शिष्य आर्यरक्षित के द्वारा विभक्त हुए। उस घटना को स्पष्ट करने के लिए यह गाथा ही यथेष्ट हैं
देविदं वंदिएहि महाणुभावोहि रक्खियज्जेहिं । जुग मासज्ज विभक्तो, अणुयोगो तो कओ चउहा ॥
(अभिधान राजेन्द्र कोश) देवेन्द्रों से वंदित महानुभाव आर्यरक्षित ने प्रवचन हित के लिए अनुयोग के चार विभाग किये। जिससे अध्ययनेच्छ आगमार्णव में प्रवेश पा श्रुत की आराधना कर सकें। विभाग करने के पीछे इतिहास भी है।
आचार्य आर्यरक्षित के चार प्रमुख शिष्य थे
१. दुर्बलिका पुष्यमित्र
३. विघ्य मुनि २. फल्गुरक्षित
४. गोष्ठामाहिल। एक दिन विध्यमुनि ने गुरु से निवेदन किया-"आप मुझे अकेले को ही वाचना देवें ।" "यह मेरे लिए सम्भव नहीं. अतः आज से तुम्हें दुर्बलिकापुष्य वाचना देंगे, तुम उनसे पढ़ना ।" आचार्य ने उनको शीघ्र अध्ययन सामग्री मिलने के लिए व्यवस्था कर दी। कुछ दिनों तक वे वाचना देते रहे । फिर एक दिन गुरु से निवेदन किया--भन्ते ! वाचना में समय अधिक लगने से मेरे नवें पूर्वज्ञान की विस्मृति सी हो रही है । अगर यही क्रम रहा तो मैं सारा पूर्व भूल जाऊँगा। आर्यरक्षित आचार्य ने विचार किया कि दुर्बलिकापुष्य जैसे मेधावी की यह गति है तब दूसरों की तो क्या दशा होगी। अब प्रज्ञा की हानि हो रही है। प्रत्येक आगम में चारों अनुयोगों को धारण करने की क्षमता रखने वाले अब अधिक नहीं होंगे। चिन्तन पश्चात् आगम साहित्य को चार' भागों में विभक्त कर दिया
चत्तारि अणुयोग चरण धम्म गणियणुयोग यदग्वियणुयोगे तहा जहक्कम महिड्ढिया ।
(अभिधान राजेन्द्र कोश) १. चरण करणानुयोग
२. धर्मकथानुयोग ३. गणिताणुयोग
४. द्रव्यानुयोग।
चैतन्य के मूल स्वरूप को प्राप्त करना ही मुक्ति है और यही सभी दर्शनों और धर्मों का चरम लक्ष्य रहा है। जैन दर्शन का साध्य तो मुक्तावस्था है ही । उसकी प्राप्ति के लिए परम प्रभु प्रवचन करते हैं । ज्ञान-विज्ञान की सारी सिद्धियाँ आत्म साक्षात्कार की ओर ले जाने से ही श्रेष्ठ हैं अन्यथा बेकार और दुःखप्रद है। चरणकरणानयोग में आत्म-साक्षात्कार की प्रक्रिया का वर्णन है। उसमें आचारांगादि आचार-ग्रन्थ आते हैं।
"चर्यते एनेन इति चरणं भवोदधेः परं कूलं प्राप्यते" जिसके द्वारा भवसागर का किनारा प्राप्त किया जा सके उसे चरण कहते हैं। जैसे मनुष्य चरणों से मंजिल तय करता है । वैसे ही साधक चरण (चारित्र) के द्वारा अपने चरम
१. आवश्यक कथा १७४:
चतुष्वैकैक सूत्रार्था-ख्याते स्यात् कोऽपि न क्षमः । ततोऽनुयोगां चतुरः पार्थक्येन व्यधात् प्रभु : ॥
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org -