Book Title: Kesarimalji Surana Abhinandan Granth
Author(s): Nathmal Tatia, Dev Kothari
Publisher: Kesarimalji Surana Abhinandan Granth Prakashan Samiti
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जैन परम्परा में संघीय साधना का महत्व साध्वी श्री कंचनकुमारी 'लाडनूं'
[ युगप्रधान आचार्य श्री तुलसी की शिष्या ]
जैन परम्परा में साधना दो भागों में विभाजित हुई है- एक संघबद्ध साधना, दूसरी संघमुक्त साधना | जिनकल्पी मुनि संघ से मुक्त होकर सर्वोत्कृष्ट साधना के पथ पर बढ़ते हैं और कई साधक संघबद्ध होकर साधना करते हैं । तत्त्वतः वैयक्तिक साधना की पृष्ठभूमि संघ ही है । अहिंसा, सत्य, मैत्री आदि की साधना भी संघीय धरातल पर ही पल्लवित एवं पुष्पित हुई है। जिनकल्पी साधक कठोर साधना कर ले अन्ततः मोक्ष प्राप्ति के लिए उसे संघ की शरण में आना ही पड़ेगा, क्योंकि कैवल्य का उपयोगी क्षेत्र संघ ही है । यदि संघ व समाज न हो तो व्यक्ति के ज्ञान और विज्ञान की उपयोगिता सिद्ध नहीं होती ।
भगवान महावीर ने साधना के परिपाक में सम्पूर्ण ज्ञानोपलब्धि के प्रथम दिन में ही एक विशाल संघ का निर्माण किया । १४००० श्रमण, ३६००० श्रमणी परिवार का एक बृहत् संघ था। धर्मसंघ के इतिहास में यह प्रथम संघ था। गौतम बुद्ध ने भी बोधिलाभ के पश्चात् संघ का निर्माण किया । धर्मसंघ का महत्त्व सर्वोपरि है । संघ त्राण है, प्राण है, प्रतिष्ठा है, गौरव है, और सर्वस्व है। संघ की गरिमा अनिवर्चनीय है, अनुपमेय है और अगम्य है । स्वयं भगवान ने संघ को नमस्कार किया है— तित्पयर बंदणिज्जं संघ तित्थपरो, विय एवं णमए गुरु भावओ देव संघ को अपने से अधिक महान् एवं सर्वोपरि माना है। भगवान बुद्ध के शब्दों में संघ शरणं गच्छामि'।
तीर्थकरों ने
यद्यपि व्यक्ति महान है, पर उससे अधिक महान् संघ है। व्यक्ति की अपेक्षा समाज बड़ा है। व्यक्ति अणु है, संघ पूर्ण । व्यक्ति छोटा है, संघ महान् है । व्यक्ति आखिर व्यक्ति है, संघ संघ है । व्यक्ति की शक्ति सीमित है, संघ सर्वशक्तिमान है । अतः राजनीति, समाजनीति और धर्मनीति आदि हर क्षेत्र में सामूहिकता की प्रधानता रही है ।
देश की स्वतन्त्रता के पश्चात् महात्मा गांधी से किसी एक व्यक्ति ने कहा- बापू ! अब आपको हिमालय में जाकर एकान्त साधना करनी चाहिए। गांधीजी ने उत्तर दिया- भाई ! अगर जनता हिमालय में जायगी तो मैं भी वहाँ पहुँच जाऊँगा, क्योंकि मेरे महात्मापन का थर्मामीटर समाज है । हिमालय में मेरी साधना की कसौटी कौन करेगा ? अतः मेरी साधना का स्वरूप जनता के बीच ही निखर पायेगा ।
संघ सामुदायिक जीवन है, समुदाय का अर्थ है - इकाइयों का योग । इकाई अपने आप में पूर्ण नहीं होती । अकेले व्यक्ति के पथ में अगणित अवरोध आते हैं । वहाँ व्यक्ति का मनोबल टूटने लग जाता है, तो वह सम्भवत: कहीं भटक भी सकता है, अतः इसकी पूर्णता के लिए संघ बहुत बड़ा आलम्बन है । जीवन की सुरक्षा का सबसे बड़ा कवच संघ है । जैसे संघ के साथ यात्रा करने वाला सुगमता से निश्चित लक्ष्य को पा लेता है उसी प्रकार धर्मसंघ की
कुछ नहीं होता, व्यक्ति
छत्रछाया में आया साधक अपने लक्ष्य को सानन्द प्राप्त कर लेता है। संघ में व्यक्ति का अपना स्वयं संघरूपी समाज का है, और उसकी समग्र अपेक्षा समाज संबद्ध है। एक के लिए सब और का हर सदस्य अन्य हर सदस्य की सहानुभूति के लिए सदा समर्पित रहता है । तत्काल निजी स्वार्थों का और व्यक्तिगत
सब के लिये एक । संघ
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