Book Title: Kesarimalji Surana Abhinandan Granth
Author(s): Nathmal Tatia, Dev Kothari
Publisher: Kesarimalji Surana Abhinandan Granth Prakashan Samiti
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तप : एक महत्त्वपूर्ण अनुष्ठान
२४.
उपवास और चार बीयासन करने को बोरसा तप कहते हैं। दोनों अंगों का बोरसा तप करने से आठ उपवास और पारणा में बीयासना करके इसे सम्पन्न किया जाता है।
वाटको तप-इसमें चार व्यक्ति सबेरे-सबेरे बिना कुछ खाये-पीए किसी पाँचवें व्यक्ति से चार वाटकियाँ तैयार करवाते हैं । पाँचवाँ व्यक्ति चार वाटकियों में एक में घी, एक में छाछ, एक में नवकरवाली और एक को खाली रखकर ढक देता है। फिर चारों व्यक्तियों को वहाँ बुलाया जाता है । चारों एक-एक वाटकी को खोलते हैं । घी वाली वाटकी जिसने खोली उसे एकासना करना होता है। छाछ वाली बाटकी जिसके निकली उसे नीबी करनी पड़ती है। जिसकी वाटकी में नवकरवाली निकली उसे आयंबिल करना पड़ता है। जिसकी वाटकी सर्वथा खाली निकली उसे उपवास करना पड़ता है। वाटकी खोलने से पहले यह किसी को पता नहीं रहता कि आज कौनसा तप करना है । वाटकी खोलने पर जिस तप का संकेत मिला उसी तप को उसी समय पचख लिया जाता है । वाटकी तप भी सोलह दिन करने का होता है।
परदेशी (प्रदेशी) राजा का बेला-राजा परदेशी (प्रदेशी) पहले नास्तिक था। बाद में आचार्य केशीकुमार श्रमण से धर्म समझकर श्रावक बन गया। राज्य की समुचित व्यवस्था करके स्वयं विशिष्ट उपासना में लग गया, बेले-बेले पारणा करने लगा। बारह बेले सम्पन्न हो गये, तेरहवें बेले के पारणे में महारानी सुरिकान्ता के जहर दिये जाने से समाधियुक्त मरकर स्वर्गवासी बना।
उसी के उपलक्ष में यह तप किया जाता है। एक के बाद एक यों संलग्न बारह बेले किये जाते हैं और तेरहवाँ बेला चउविहार करके इसे सम्पन्न किया जाता है।
रसवाला तेला-इस तप का नाम पारणे के आधार पर पड़ा है। इसे रसवाला तेला इसलिए कहा जाता है कि इसके पारणे में रसमय पकवान ही खाये जाते हैं। पहले तेले के पारणे में सिर्फ लापसी ही खाई जाती है। दूसरे तेले के पारणे में सीझवां चावल और घी, चीनी ही काम में लिया जा सकता है। तीसरे तेले के पारणे में केवल लाडू (मोदक) का ही भोजन किया जाता है । चौथे तेले के पारणे में सीरा खाया जाता है। दिन भर जितनी रुचि हो केवल सीरा ही काम में आएगा । पाँचवें तेले के पारणे में खीर-पूड़ी का भोजन करना होता है। ये पाँच रसवाले तेले हो गए। इसके बाद छठे तेले के पारणे में चन्दनबाला की भाँति उड़द के बाकले लिये जाते हैं। उस दिन चउविहार भी रखना पड़ता है, इसे चंदनबाला के तेले भी कहे जाते हैं।
कंठी तप- इसमें चौदह उपवास एकान्तरयुक्त करने होते हैं, बीच में एक तेला, दो बेला करना पड़ता है। इसका क्रम इस प्रकार है-प्रारम्भ में एक बेला फिर एकान्तर से सात उपवास करना होता है। बीच में एक तेला करके फिर एकान्तरयुक्त सात उपवास करना होता है। अन्त में एक बेला करके इसे सम्पन्न किया जाता है। इसमें इक्कीस दिनों की तपस्या और सत्रह दिन पारणे के होते हैं, कुल मिलाकर अड़तीस दिन का यह कंठी तप होता है।
इसके अतिरिक्त यति लोगों के चलाये हुए तप में धमक तेला, चुंदरी चोला, खीर पंचोला आदि भी हैं। उसमें तपस्या के साथ पीहर और ससुराल वालों को कुछ खर्च भी करना पड़ता था, साथ में यतिजी का भी पात्र भरना होता था।
वर्षी तप-प्रथम तीर्थंकर भगवान श्री ऋषभ के वर्षी तप की स्मृति में जो एकान्तर तप किया जाता है। उसे वर्षों तप माना जाता है । इसका प्रारम्भ प्रायः चैत्र वदी अष्टमी श्री ऋषभ प्रभु के दीक्षा कल्याणक दिवस से किया जाता है। पारणे में बीयासना करते हैं । अक्षय तृतीया को इसे इक्षु रस के पारणे से सम्पन्न करते हैं । कई तपस्वी लोग बेले-बेले और कई तेले-तेले भी वर्षी तप करते हैं । सामूहिक तपस्या क्रम
सामूहिक तपस्या का क्रम अन्य जैन सम्प्रदायों की अपेक्षा तेरापंथ सम्प्रदाय में अधिक है । यहाँ पंचरंगी, सतरंगी, नौरंगी, ग्यारहरंगी और तेरहरंगी तपस्याएँ होती रहती हैं । पंचरंगी में-पाँच ५, पाँच ४, पाँच ३, पाँच २, पाँच १ इस
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