Book Title: Kesarimalji Surana Abhinandan Granth
Author(s): Nathmal Tatia, Dev Kothari
Publisher: Kesarimalji Surana Abhinandan Granth Prakashan Samiti
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संलेखना : स्वरूप और महत्त्व
२३५
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दर्शन, सम्यग्ज्ञान से आत्मा और देह की पृथक्ता समझकर चारित्र और तप की आराधना करता है । उसकी आराधना में किसी भी प्रकार की आसक्ति और भय नहीं होता। इसलिए समाधिमरण आत्महत्या नहीं है। संक्षेप में यदि हम कहें तो संलेखना व समाधिमरण की निम्न विशेषताएँ हैं--
(१) जैन धर्म की दृष्टि से शरीर और आत्मा ये दोनों पृथक-पृथक् हैं। जैसे मोसम्बी और उसके छिलके।
(२) आत्मा निश्चयनय की दृष्टि से पूर्ण विशुद्ध है, वह सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान, सम्यक्चारित्र, अनन्त आनन्द से युक्त है । जो हमें शरीर प्राप्त हुआ है उसका मूल कर्म है । कर्म के कारण ही पुनर्जन्म हैं, मृत्यु हैं, व्याधियाँ हैं,।
(३) दैनन्दिन जीवन में जो धार्मिक साधना पर, तप पर बल दिया गया है उसका मूल उद्देश्य है आत्मा में जो कर्म-मैल है उस मैल को दूर करना । प्रश्न है कर्म आत्मा पर चिपके हुए हैं, फिर शरीर को कष्ट क्यों दिया जाय । उत्तर है, घृत में यदि मलिनता है तो उस मलिनता को नष्ट करने के लिए घृत को तपाया जाता है, किन्तु घृत अकेला नहीं तपाया जा सकता, वह बर्तन के माध्यम से ही तपाया जा सकता है। वैसे ही आत्मा के मैल को नष्ट करने के लिए शरीर को भी तपाया जाता है। यही कारण है कि संलेखना में कषाय के साथ तन को भी कृश किया जाता है।
(४) जब शरीर में वृद्धावस्था का प्रकोप हो, रुग्णता हो, अकाल आदि के कारण शरीर के नष्ट होने के प्रसंग उपस्थित हों, तो उस समय साधक को संलेखना व्रत ग्रहण कर आत्मभाव में स्थिर रहना चाहिए। संलेखना आत्मभाव में स्थिर रहने का महान् उपाय है।
(५) संलेखना व्रत ग्रहण करने वाले को मृत्यु के सम्बन्ध में जानकारी प्राप्त कर लेनी चाहिए। मृत्यु की जानकारी के लिए श्वेताम्बर आचार्यों ने अनेक उपाय बताये हैं। उपदेशमाला के आम्नाय आदि के द्वारा आयु का समय जाना जा सकता है।
(६) संलेखना करने वाले साधक का मन वासना से मुक्त हो, उसमें किसी भी प्रकार दुर्भावना नहीं होनी चाहिए।
(७) संलेखना के पूर्व जिनके साथ वैमनस्य हुआ हो उनसे क्षामायाचना कर लेनी चाहिए और दूसरों को क्षमा प्रदान भी कर देना चाहिए।
(८) संलेखना के अन्दर तनिक मात्र भी विषम भाव न हो । मन में समभाव हो।
(8) संलेखना अपनी स्वेच्छा से ग्रहण करनी चाहिए। किसी के दबाव में आकर अथवा स्वर्ग आदि के सुखों की प्राप्ति उपलब्ध होगी इस दृष्टि से संलेखना-संथारा करना अनुचित है।
(१०) सलेखना करने वाला साधक मन में यह न सोचे कि मेरी संलेखना--संथारा लम्बे काल तक चले जिससे कि लोग मेरे दर्शन हेतु उपस्थित हो सकें, मेरी प्रशंसा हो, और यह भी न सोचे कि मैं शीघ्र ही मृत्यु को परण कर लू । संलेखना वाला साधक न जीने की इच्छा करता है, न मरने की; वह तो सदा समभाव में रहकर संलेखना की साधना करता है। उसमें न लोकषणा होती है, न वित्तषणा होती है, न पुत्रैषणा होती है।
जैन साधना पद्धति में आत्म बलिदान की प्रथा मान्य नहीं है । शैव और शाक्त साम्प्रदायों में पशुबनि की भांति आत्म-बलिदान को अत्यधिक महत्त्व दिया गया है। पर जैन धर्म में उसका महत्त्व नहीं है। संलेखनायुक्त समाधिमरण आत्म-बलिदान नहीं है । आत्म-बलिदान और समाधिमरण में अन्तर है। आत्म-बलिदान भावना को प्रबलता होती है । बिना भावातिरेक के आत्म-बलिदान नहीं होता, जबकि समाधिमरण में भावातिरेक नहीं, किन्तु विवेक की प्रधानता होती है।
यदि हम श्रमण जीवन को सूर्य की उपमा से अंलकृत करें तो कह सकते हैं कि आर्हती दीक्षा ग्रहण करना यह श्रमण जीवन का उदयकाल है। उसके पूर्व की वैराग्य अवस्था साधक जीवन का उषाकाल है। जब साधक उत्कृष्ट
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