Book Title: Kesarimalji Surana Abhinandan Granth
Author(s): Nathmal Tatia, Dev Kothari
Publisher: Kesarimalji Surana Abhinandan Granth Prakashan Samiti
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जैन दर्शन और ईश्वर की परिकल्पना
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यह तर्क दिया जा सकता है कि इश्वर ने ही प्रकृति के नियमों की अवधारणा की है। इन्हीं के कारण जीव सासांरिक कार्य-प्रपंच करता है। इसका उत्तर यह है कि यदि ईश्वर के द्वारा ही प्रकृति के नियमों की अवधारणा हुई होती तो उसमें जागतिक कार्य-प्रपंचों में परिवर्तन करने की भी शक्ति होती । हम देख चुके हैं कि यह सत्य नहीं है। इसका कारण यह है कि यदि ऐसा होता तो परमकरुण ईश्वर के द्वारा निर्धारित संसार के जीवों के जीवन में किंचित् भी दुःख, अशान्ति, क्लेश नहीं होता। यदि हम ईश्वर की कल्पना प्रशान्त, परिपूर्ण, राग-द्वेषरहित, मोहविहीन, वीतरागी, आनन्दपरिपूर्ण रूप से करते हैं तो भी उसे फल में हस्तक्षेप करने वाला नहीं माना जा सकता। उस स्थिति में वह राग, द्वेष तथा मोह आदि दुर्बलताओं से पराभूत हो जावेगा । यदि जीव स्वेच्छानुसार एवं सामर्थ्यानुकूल कर्म करने में स्वतन्त्र है, उसमें परमात्मा के सहयोग की कोई आवश्यकता नहीं है तथा वह अपने ही कर्मों का परिणाम भोगता है, फल प्रदाता भी दूसरा कोई नहीं है तो क्या उनकी उत्पत्ति एवं विनाश के हेतु रूप में किसी परम शक्ति की कल्पना करना आवश्यक है ? इसी प्रकार क्या सृष्टि-विधान के लिए भी किसी परमशक्ति की कल्पना आवश्यक है ? यदि नहीं तो फिर परमात्मा या ईश्वर की परिकल्पना की क्या सार्थकता है ?
कर्तावादी सम्प्रदाय पदार्थ का तथा उसके परिणमन का कर्ता (उत्पत्तिकर्ता, पालनकर्ता तथा विनाशकर्ता) ईश्वर को मानते हैं। इस विचारधारा के दार्शनिकों ने ईश्वर की परिकल्पना सम्पूर्ण ब्रह्माण्ड की परम शक्ति के रूप में की है जो विश्व का कर्ता तथा नियामक है तथा समस्त प्राणियों के भाग्य का विधाता है। इसके विपरीत चार्वाक, निरीश्वर सांख्य, मीमांसक, बौद्ध एवं जैन इत्यादि दार्शनिक परमात्मा के अस्तित्व में विश्वास नहीं करते हैं। वैशेषिक दर्शन भी मूलतः ईश्वरवादी नहीं है। भारतीय दर्शनों में नास्तिक दर्शन तो ईश्वर की सता में विश्वास नहीं करते, शेष षड्दर्शनों में प्राचीनतम दर्शन सांख्य हैं । इसका परवर्ती दार्शनिकों पर प्रभाव पड़ा है। इस दृष्टि से सांख्य दर्शन के ईश्वरवाद की मीमांसा आवश्यक है। सांख्य दर्शन में दो प्रमेय माने गये हैं (१) पुरुष, (२) प्रकृति ।'
पुरुष चेतन है, साक्षी है, केवल है, मध्यस्थ है, द्रष्टा है और अकर्ता है । प्रकृति जड़ है, क्रियाशील है और महत् से लेकर धरणि पर्यन्त सम्पूर्ण तत्त्वों की जन्मदात्री है, त्रिगुणात्मिका है, सृष्टि की उत्पादिका है, अज एवं अनादि है तथा शाश्वत एवं अविनाशी है ।२ ईश्वरकृष्ण की सांख्यकारिकाओं में ईश्वर, परमात्मा, भगवान या परमेश्वर की कोई कल्पना नहीं की गयी है। कपिल द्वारा प्रणीत सांख्य सूत्रों में, ईश्वरासिद्धः (ईश्वर की अशिद्धि होने से) सूत्र उपस्थापित करके ईश्वर के विषय में अनेक तर्कों को प्रस्तुत किया गया है। यहाँ प्रमुख तर्कों की मीमांसा की जावेगी। १. कुसुमवच्चमणि'
सूत्र के आधार पर स्थापना की गयी है कि जिस प्रकार शुद्ध स्फटिकमणि में लाल फूल का प्रतिबिम्ब पड़ता है उसी प्रकार असंग, निर्विकार, अकर्ता पुरुष के सम्पर्क में प्रकृति के साथ-साथ रहने से उसमें उस अकर्ता पुरुष का प्रतिबिम्ब पड़ता है। इससे जीवात्माओं के अदृष्ट कर्म संस्कार फलोन्मुखी हो जाते हैं तथा सृष्टि प्रवृत्त होती है। यह स्थापना ठीक नहीं है । इसके अनुसार चेतन जीवात्माओं को पहले प्रकृति में लीन रहने की कल्पना करनी पड़ेगी तथा उन्हें प्रकृति से उत्पन्न मानने पर जड़ को चेतन का कारण मानना पड़ेगा। इसके अतिरिक्त यदि अदृष्ट कर्म संस्कार फल प्रदान करते हैं तो फिर परमात्मा के सहकार की क्या आवश्यकता है ?
२. अकार्यत्वेपितद्योगः पारवश्यात्
सूत्र के आधार पर स्थापना की गई है कि प्रकृति कारण रूप है, कार्य नहीं है। अनन्त, विभु जीवात्मा पुरुषों १. सांख्य तत्व कौमुदी, कारिका १८, १६. २. वही, कारिका, ११, १२, १४. ३. सांख्य सूत्र ३५, प्रकाश २ । ४. सांख्य सूत्र ५५, प्रकाश ३।
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