Book Title: Kesarimalji Surana Abhinandan Granth
Author(s): Nathmal Tatia, Dev Kothari
Publisher: Kesarimalji Surana Abhinandan Granth Prakashan Samiti
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आत्म : स्वरूप-विवेचन
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लाल रंग से हमारा शरीर आवृत है, किन्तु लाल रंग का आधार वस्त्र भी हमारे शरीर पर है। लाल रंग और वस्त्र को पृथक-पृथक नहीं देखा जा सकता, उसी प्रकार उपर्युक्त गुणों की विद्यमानता स्वयं ही आत्मा के अस्तित्व को सिद्ध कर देती है, यह धारणा सर्वथा मिथ्या होगी कि यह ज्ञान शरीर का गुण है। ज्ञान स्वयं अमूर्त है। अत: वह मूर्त देह का भाग या गुण नहीं हो सकता। उसका सम्बन्ध तो अमूर्त आत्मा के साथ है। इस प्रकार यह मानना ही होगा कि आत्मा का अस्तित्व असन्दिग्ध है।
आत्मा का स्वरूप क्या है ? यह प्रश्न क्योंकि अमुर्त आत्मा के लिए है-इसका उत्तर सहज ही नहीं दिया जा सकता। जो अमूर्त है उसके लक्षणादि का परिचय सुगम हो भी नहीं सकता । जैन चिन्तन इस दिशा में अत्यन्त सक्रिय रहा है और इस विलोड़न के परिणामस्वरूप यह जटिलता कम हो गई है । जैन दर्शन ने आत्मा की स्वरूपगत व्याख्या को एक वैज्ञानिक
और व्यवस्थित रूप प्रदान कर दिया है। जैन दृष्टि से आत्मा का प्रधान गुण चेतनता है। इस चैतन्य के कारण बोध या ज्ञान का व्यापार सम्भव हो पाता है। तत्त्वार्थ सूत्र में आत्मा की इसी स्वरूपगत विशेषता का परिचय उपयोग शब्द द्वारा दिया गया है-उपयोगो लक्षणम् । स्पष्ट है कि इस सचेतनता के कारण ही आत्मा में उपयोग का लक्षण होता है । अचेतना के कारण जड़ पदार्थ उपयोगहीन रहते हैं। यहाँ उपयोग शब्द के शास्त्रीय और तकनीकी अर्थ को ही ग्रहण करना होगा। साधारण शब्दार्थ यहाँ अप्रासंगिक होगा। प्रस्तुत प्रसंग में उपयोग का आशय चेतना से ही है। इस चेतना के प्रधान धर्म के साथ आत्मा के कतिपय अन्य साधारण धर्म भी हैं। वे हैं-उत्पाद, व्यय, धौव्य, सत्त्व, प्रमेयत्व आदि । जहाँ उपयोग का आशय चैतन्य से ग्रहण किया गया है, वहाँ उसका एक मोटा अर्थ है। यदि गहराई से देखा जाये तो चैतन्य के अन्तर्गत उपयोग के साथ-साथ सुख और वीर्य तत्त्व भी आ जाते हैं । उपयोग स्वयं भी दो
भेदों में विभक्त होता है, ज्ञान और दर्शन । इस दृष्टि से आत्मा अनन्त चतुष्टय का स्वरूप रखती है-स द्विविधोऽष्टचतुर्भेदः।
अनन्त चतुष्टय के अन्तर्गत इस प्रकार अनन्तज्ञान, अनन्तदर्शन, अनन्तसुख और अनन्तवीर्य को स्थान दिया गया है । 'उपयोगो लक्षणम्' कहकर जहाँ उपयोग को ही आत्मा का स्वरूप बताया गया है, वहाँ अनन्तज्ञान, अनन्तदर्शन तो उपयोग के अन्तर्गत आ ही जाते हैं, शेष अनन्तवीर्य और अनन्तसुख भी इसी में अन्तनिहित हो जाते हैं।
अनन्त चतुष्टय के सम्बन्ध में यह भी उल्लेखनीय है कि यह अपने समग्ररूप में संसारी आत्मा में नहीं होता। इसे मुक्त आत्माओं की स्वरूपगत विशेषता ही माना जाना चाहिए। केवली अनन्त चतुष्टययुक्त आत्मा का स्वामी होता है । ज्ञानावरण, दर्शनावरण, मोहनीय और अन्तराय कर्म का जब क्षय हो जाता है, तो प्रादुर्भाव होता है-अनन्त चतुष्टय का।
तात्पर्य यह है कि चार घातिक कर्मों के क्षय का परिणाम चेतनता के रूप में उदित होता है, जिसके दो भेद हैं-ज्ञानोपयोग और दर्शनोपयोग । इन दोनों में समानता तो यह है कि ये दोनों ही चेतना के रूप है और अन्तर यह है कि ज्ञान साकार एवं दर्शन निराकार है। इसी प्रकार ज्ञान सविकल्प माना जाता है और दर्शन निर्विकल्प । निर्णयात्मक होने के कारण ज्ञान दर्शन से अपेक्षाकृत अधिक महत्त्व रखता है और इसी आधार पर इसे प्रथम स्थान दिया जाता है । तदनन्तर दर्शन को और यों उत्पत्ति की दृष्टि से निधारण किया जाये तो दर्शन को ज्ञान की अपेक्षा पहले ही स्थान मिलना चाहिए, उपयोग का आदि सोपान ही दर्शन है, इस प्रथम चरण दर्शन से केवल सत्ता का भान होता है और इसके पश्चात् जब विशेषग्राही रूप में उपयोग आता है, तब वह ज्ञान का रूप धारण करता है। उपयोग और चेतना का क्रमिक स्वरूप तो यही है, किन्तु महत्त्व की दृष्टि से ज्ञान को अग्रगण्य स्वीकारा जाता है।
ज्ञानोपयोग ज्ञानोपयोग के भेद पृष्ठ २१६ की तालिका में द्रष्टव्य हैं
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