Book Title: Kesarimalji Surana Abhinandan Granth
Author(s): Nathmal Tatia, Dev Kothari
Publisher: Kesarimalji Surana Abhinandan Granth Prakashan Samiti
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संलेखना : स्वरूप और महत्त्व
0 श्री देवेन्द्र मुनि शास्त्री (राजस्थान केसरी उपाध्याय श्री पुष्कर मुनिजी के शिष्य)
श्रमण और श्रावक दोनों के लिए संलेखना आवश्यक मानी गई है। श्वेताम्बर परम्परा में “संलेखना” शब्द का प्रयोग हुआ है तो दिगम्बर परम्परा में 'सल्लेख ना" शब्द का । संलेखना व्रतराज है । जीवन की सान्ध्य वेला में की जाने वाली एक उत्कृष्ट साधना है । जीवन भर कोई साधक उत्कृष्ट तप की साधना करता रहे, पर अन्त समय में वह राग-द्वेष के दल-दल में फँस जाये तो उसका जीवन निष्फल हो जाता है । उसकी साधना विराधना में परिवर्तित हो जाती है। आचार्य शिवकोटि ने तो यहाँ तक लिखा है-ज्ञान, दर्शन, चारित्र रूप, धर्म में चिरकाल तक निरतिचार प्रवृत्ति करने वाला मानव यदि मरण के समय धर्म की विराधना कर बैठता है तो वह संसार में अनन्त काल तक परिभ्रमण करता है।
संलेखना मन की उच्चतम आध्यात्मिक दशा का सूचक है। संलेखना मृत्यु का आकस्मिक वरण नहीं है और न वह मौत का आह्वान ही है, वरन् जीवन के अन्तिम क्षणों में सावधानीपूर्वक चलना है। वह मृत्यु को मित्र की तरह आह्वान करता है। मित्र ! आओ, मैं तुम्हारा स्वागत करता हूँ। मुझे शरीर पर मोह नहीं है। मैंने अपने कर्तव्य को पूर्ण किया है । मैंने अगले जन्म के लिए सुगति का मार्ग ग्रहण कर लिया है । संलेखना जीवन की अन्तिम आवश्यक साधना है। वह जीवन-मन्दिर का सुन्दर कलश है । यदि संलेखना के बिना साधक मृत्यु का वरण करता है तो उसे उचित नहीं माना जाता।
संलेखना को हम स्वेच्छा-मृत्यु कह सकते हैं। जब वैराग्य का तीव्र उदय होता है तब उसे शरीर और अन्य पदार्थों में बन्धन की अनुभूति होती। वह बन्धन को समझकर उससे मुक्त बनना चाहता है। महाराष्ट्र के सन्त कवि ने कहा है-“माझे मरण पाही एले डोला तो झाला सोहला अनुपम्य"-मैंने अपनी आँखों से मृत्यु को देख लिया, यह अनुपम महोत्सव है। वह मृत्यु को न आमन्त्रित करता है, पर मृत्यु से भयभीत नहीं होता। जैसे कबूतर पर जब बिल्ली झपटती है तब वह आँखें मूंद लेता है और वह सोचता है अब बिल्ली झपटेगी नहीं। आँखें मूंद लेने मात्र से बिल्ली कबूतर को छोड़ती नहीं है । यमराज मृत्यु को भुला देने वाले को छोड़ता नहीं है। वह तो अपना हमला करता ही है । अत: साधक कायर की भाँति मुह को मोड़ता नहीं । किन्तु वीर सेनानी की तरह मुस्कराते हुए मृत्यु का स्वागत करता है।
१. अन्त क्रियाधिकरणं तप: फलं सकलदशिनः स्तुवते । तस्माद्या-विद्विभवं समधिकरणे प्रयतितव्यम् ॥
-समन्तभद्र, समीचीन धर्मशास्त्र ६२ २. भगवती आराधना, गाथा १५ ३. "लहिभो सुग्गई मग्गो नाहं मच्चस्स बीहेमो।"
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