Book Title: Kesarimalji Surana Abhinandan Granth
Author(s): Nathmal Tatia, Dev Kothari
Publisher: Kesarimalji Surana Abhinandan Granth Prakashan Samiti
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जैन धर्म में कर्म-सिद्धान्त
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कर देता है, उनके बहु-प्रदेशों को अल्प-प्रदेशों में बदल देता है।"१ इस प्रकार कर्म की स्थिति एवं रस का परिवर्तन अपवर्तना से ही संभावित है।
४. सत्ता-कर्म बन्ध के बाद जितने समय तक उदय में नहीं आता, उस काल को अबाधा काल कहा जाता है। अबाधा काल एवं विद्यमानता का नाम सत्ता है। यह स्थिति शान्त सागर की सी है अथवा अरणि की लकड़ी में आग जैसी है।
५. उदय-बँधे हुए कर्म-पुद्गल जब अपना कार्य करने में समर्थ हो जाते हैं, तब उनके निषेक प्रगट होने लगते हैं । उन निधेकों का प्रगटीकरण ही उदय है। वह दो प्रकार का है-जिसके फल का अनुभव होता है, वह विपाकोदय और जिसका केवल आत्मप्रदेशों में ही अनुभव होता है वह प्रदेशोदय कहलाता है।
गौतम ने पूछा-भगवन् ! किये हुए कर्म भोगे बिना नहीं छूटते, क्या यह सच है ? भगवान्-हाँ, गौतम! यह सच है । गौतम-कैसे ? भगवन् !
भगवान्-गौतम ! मैंने दो प्रकार के कर्म बतलाये हैं--प्रदेश कर्म और अनुभाग कर्म । जो प्रदेश कर्म हैं, वे अवश्य ही भोगे जाते हैं । जो अनुभाग कर्म हैं, वे विपाक रूप में भोगे भी जाते हैं और नहीं भी भोगे जाते ।
प्रदेशोदय से आत्मा को सुख-दुःख की स्पष्ट अनुभूति नहीं होती और न ही सुख-दुःख का स्पष्ट संवेदन । क्लोरोफार्म चेतना से शून्य किये हुए शरीर के अवयवों को काट देने पर व्यक्ति को पीड़ा की अनुभूति नहीं होती वसे ही यह स्थिति है।
विपाकोदय से आत्मा को सुख-दुःख की स्पष्ट अनुभूति एवं संवेदना होती है। यह स्थिति फूल-शूल के स्पर्श का स्पष्ट अनुभव लिए होती है। कर्मपरमाणुओं में जीवात्मा के सम्बन्ध से एक विशिष्ट परिणाम होता है। वह द्रव्य, क्षेत्र, काल, भाव से प्रभावित होकर विपाक-प्रदर्शन में समर्थ हो, जीवात्मा के संस्कारों को विकृत करता है। उससे उनका फलोपभोग होता है
दव्वं, खेत, कालो, भवो य, भावो य हेयवो पंच। हेउ समासेण उदयो, जाय इसव्वाण पगईणं ॥
-पं०सं उदाहरणार्थ--जैसे, एक व्यक्ति खटाई खाता है, तत्काल उसे आम्लपित की बीमारी हो जाती है, यह द्रव्यसम्बन्धी विपाक है । एक व्यक्ति छांह से धूप में जाता है, तत्काल उसके शरीर में उष्मा पैदा हो जाती है, यह क्षेत्रसम्बन्धी विपाक है । एक व्यक्ति सर्दी में छत पर सोता है, उसे बुखार हो जाता है, यह काल-सम्बन्धी विपाक है, इसी प्रकार भाव, भव सम्बन्धी विपाकोदय समझना चाहिए।
कर्म का परिपाक, डाल पर पककर टूटने वाले और प्रयत्न से पकाये जाने वाले फल की तरह है । जो फल सहज गति से पकता है उसके परिपाक में अधिक समय लगता है और जो प्रयत्न से पकता है उसको कम ।
यद्यपि भगवान बुद्ध ने जैनों की तरह कर्म-सिद्धान्त की अवगति के लिए कोई स्वतन्त्र ग्रन्थ का गुम्फन नहीं किया और न विशद-विश्लेषण । फिर भी त्रिपिटक तथा तत्सम्बन्धी व्याख्यात्मक ग्रन्थों से कर्म-चर्चा यत्र-तत्र बिखरी हुई मिलती है। विपाकोदय के विषय में भगवान बुद्ध का अभिमत उनके एक जीवन प्रसंग से समझिये
१. अणुप्पेहाएणं भन्ते ! जीवे कि जणयइ ?
--उ० अ० २६, सूत्र २२.
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