Book Title: Kesarimalji Surana Abhinandan Granth
Author(s): Nathmal Tatia, Dev Kothari
Publisher: Kesarimalji Surana Abhinandan Granth Prakashan Samiti
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अस्तित्व अमान्य है किन्तु जैनदर्शन उसी मान्यता का खण्डन करता है और भौतिक देह से भिन्न अपने मौलिक स्वरूप
आत्मा का होना मानता है। इस विषय में विस्तृत विवेचन इस अध्याय के पूर्वाद्ध में किया जा चुका है, चर्चा इस बिन्दु पर भी की जा चुकी है कि आत्मा चैतन्यस्वरूप है । वस्तुतः जैन दर्शन द्वारा प्रस्तुत आत्मागत इस लक्षण का भी विशिष्ट स्थान है। दार्शनिकों का एक वर्ग ऐसा भी है, जो आत्मा के लक्षण के रूप में चैतन्य को नहीं मानता। चैतन्य का होना तो ये दार्शनिक भी स्वीकार करते हैं किन्तु इसे वे आगन्तुक गुण मानते हैं, ऐसा गुण मानते हैं जो बाह्य है और बाहरी तत्त्व की भांति ही आत्मा के साथ रहता है। जैसे घट एक पृथक वस्तु है और अग्नि पृथक् है, घट जब तपाया जाता है तो वह गर्म होकर लाल रंग का हो जाता है; यह ताप घट के साथ संयुक्त तो हो जाता है किन्तु अग्नि एक बाहरी वस्तु ही है, उसका संयोग अवश्य ही घट के साथ हो गया है। वैशेषिक दर्शन के विचारक इसी प्रकार चैतन्य को आत्मा के साथ संयुक्त किन्तु बाह्य आगन्तुक और औपाधिक गुण मानते हैं । इसके विपरीत जैन चिन्तन चैतन्य को आत्मा का सहज स्वरूप मानता है, बाह्य गुण नहीं मानता । यह चैतन्य ही तो वह गुण है जो आत्मा को अन्य जड़ पदार्थों से पृथक स्वरूप देता है । वैशेषिक दर्शन से भिन्न जैन दर्शन चैतन्य को आत्मा का स्वाभाविक और आवश्यक गुण मानता है । आत्मा चैतन्य स्वरूप है, यदि यह न स्वीकार किया जाय तो इसका अभिप्राय यह भी होगा कि आत्मा का अस्तित्व चैतन्य के अभाव में भी सम्भव है जैसे- अग्नि के संयोग से रहित ठण्डा घट भी तो होता ही है; किन्तु नहीं आत्मा के ऐसे स्वरूप की तो जैनाध्यात्म के अनुरूप कल्पना भी नहीं की जा सकती ।
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आत्म : स्वरूप- विवेचन
जागरह
! णरा णिच्चं जागरमाणस्स वड्ढते बुद्धी । जो सुमति न सो सुवितो, जो जग्गति सो सपा सुहितो ॥
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मनुष्यो सदा जागते रहो, जागने वाले की बुद्धि सदा बढ़ती (उन्नतिशील ) रहती है। जो सोता है, वह सुखी नहीं होता; जागने वाला ही सदा सुखी होता है।
निशीषभाष्य ५६०३
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