Book Title: Kesarimalji Surana Abhinandan Granth
Author(s): Nathmal Tatia, Dev Kothari
Publisher: Kesarimalji Surana Abhinandan Granth Prakashan Samiti
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विभिन्न दर्शनों में योगजन्य शक्तियों का स्वरूप
१५५.
भूतधर्म अनभिधात का तात्पर्य योगी की निर्वाण गति से है । जल की तरह योगी धरती में प्रवेश पा सकता है और अग्नि की ज्वालाओं का आलिंगन ले सकता है । न पृथ्वी उसकी गति को रोक सकती है, न आग शरीर को जला सकती है, न पानी उसको भिगो सकता है। सर्दी, गर्मी, वर्षा आदि का तनिक भी प्रभाव योगी पर नहीं होता है।
इन्द्रियों की पाँच अवस्थाएँ हैं-(१) ग्रहण, (२) स्वरूप, (३) अस्मिता, (४) अन्वय, और (५) अर्थवत्व । इन पांचों अवस्थाओं में संयम करने से इन्द्रियविजय होती है।'
इन्द्रिय-जय से मनोजवित्व, विकरणभाव और प्रधान जयसिद्धि की प्राप्ति होती है। मनोजवित्व- इससे शरीर में मन के तुल्य गमन करने की शक्ति आती है। विफरणभाव-स्थूल शरीर के बिना भी दूर स्थित पदार्थों के प्रत्यक्ष दर्शन की क्षमता का आविर्भाव । प्रधानजय-सम्पूर्ण प्रकृति पर विजय । समाधि सिद्ध काल में ये तीनों सिद्धियाँ स्वत: प्रकट होती हैं। इन विभूतियों के अतिरिक्त अहिंसा, सत्य आदि की साधना से अत्यन्त विस्मयकारी परिणाम फलित होते हैं । अहिंसा की उत्कर्ष स्थिति में योगी के सम्मुख प्रत्येक प्राणी वैर त्याग कर देते हैं। सत्य की उत्कर्ष स्थिति में वचन सिद्धि प्राप्त होती है। अचौर्य साधना की उत्कर्ष स्थिति में विभिन्न रत्नों की राशि प्रकट होती है। ब्रह्मचर्य की उत्कर्ष स्थिति में अतुल बल प्राप्त होता है । अपरिग्रह साधना की उत्कर्ष स्थिति में पूर्ण जन्म का भलीभाँति बोध होता है। उपनिषद् साहित्य में सिद्धियों को योगवृत्ति के नाम से पहचाना गया है।
श्वेताश्वतरोपनिषद् के अनुसार ध्यान बल में योगी जब पांच महाभूतों पर विजय प्राप्त कर लेता है उस समय इन भूतों से सम्बन्धित पाँच योग-गुण प्रकट होते हैं। इन गुणों की सिद्धि हो जाने से योगाग्निमय शरीर को प्राप्त योगी को न बुढ़ापा घेरता है, न रोग सताता है, न मौत पुकारती है। उसकी इच्छामृत्यु होती है। इच्छामृत्यु का बहुत सुन्दर क्रम भागवत महापुराण में (११।१२२४) है।
पाँच योग-गुण पाँच प्रकार की सिद्धियाँ हैं। इन सिद्धियों के साथ योगी के शरीर में लघुता (हल्कापन), आरोग्य, अलोलुपत्व, शरीरसौन्दर्य, स्वरसौष्ठव, शुभगन्ध और मूत्रपुरिष की अल्पता ये विशेषताएँ प्रकट होती हैं।
बौद्ध साहित्य में भी इस विषय पर महत्त्वपूर्ण बिन्दु प्राप्त हैं। विसुद्धिमग्ग में लिखा है कि समाहित आत्मा
१. पा० वि०, ३।४७. २. वही, ३।४८. ३. अहिंसाप्रतिष्ठायां तत्सन्निधौ वैरत्यागः।-पा० साधनापाद, २०३५. ४. सत्यप्रतिष्ठायाँ क्रियाफलाश्रयत्वम् ।-पा० सा० २।३६. ५. अस्तेयप्रतिष्ठायां सर्वरत्नोपस्थानम् ।-पा०सा० २।३७. ६. ब्रह्मचर्यप्रतिष्ठायां वीर्यलाभः । -पा०सा० २।३८. ७. अपरिग्रहस्थैर्यजन्मकथन्तासंबोधः ।-पा०सा० २।३६. ८. श्वेत०अ० २११२. ६. लघुत्वमारोग्यमलोलुपत्वं वर्णप्रसादस्वरसौष्ठवं च।
गन्धः शुभो मूत्रपुरीषमल्प योगप्रवृत्ति प्रथमं वदन्ति । -श्वे०अ० २।१३. १०. पटि सम्भिदामग्ग २।२.
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