Book Title: Kesarimalji Surana Abhinandan Granth
Author(s): Nathmal Tatia, Dev Kothari
Publisher: Kesarimalji Surana Abhinandan Granth Prakashan Samiti
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कर्मयोगी श्री केसरीमलजी सुराणा अभिनन्दन ग्रन्थ : चतुर्थ खण्ड
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आचार्य हरिभद्र द्वारा योगविशिका में दिये गये इस विशेष क्रम के विषय में यह तो केवल संकेत मात्र है, जिसके विशद अनुशीलन एवं तलस्पर्शी गवेषणा की आवश्यकता है। आचार्य हेमचन्द्र आदि विद्वानों का चिन्तन आचार्य हेमचन्द्र ने अपने योगशास्त्र में योग की परिभाषा करते हुए लिखा है
चतुर्वर्गेऽग्रणी मोक्षो योगस्तस्य च कारणम् ।
___ ज्ञानश्रद्धानचारित्र-रूपं रत्नत्रयं च सः ॥१. १५।। धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष-इन चारों पुरुषार्थों में मोक्ष अग्रणी या मुख्य है। योग उसका कारण है । अर्थात् योग-साधना द्वारा मोक्ष लभ्य है। सम्यक्ज्ञान, सम्यकदर्शन तथा सम्यक्चारित्ररूप रत्नत्रय ही योग है। ये तीनों जिनसे सधते हैं, वे योग के अंग हैं । आचार्य हेमचन्द्र ने अपने योगशात्र के बारह प्रकाशों में उनका वर्णन किया है। योगांग
महर्षि पतंजलि ने योग के जो आठ अंग माने हैं, उनके समकक्ष जैन-परम्परा के निम्नांकित तत्त्व रखे जा सकते हैं
१. यम
महाव्रत २. नियम
योगसंग्रह ३. आसन
स्थान, काय-क्लेश प्राणायाम
भाव-प्राणायाम प्रत्याहार
प्रतिसंलीनता धारणा
धारणा ७. ध्यान
ध्यान ८. समाधि
समाधि महाव्रतों के वही पाँच नाम हैं, जो यमों के हैं। परिपालन की तरतमता की दृष्टि से व्रत के दो रूप होते हैं--महाव्रत, अणुव्रत । अहिंसा आदि का निरपवाद रूप में सम्पूर्ण परिपालन महाव्रत है, जिनका अनुसरण सर्वविदित श्रमणों के लिए अनिवार्य है । जब उन्हीं का पालन कुछ सीमाओं या अपवादों के साथ किया जाता है तो वे अणु-अपेक्षाकृत छोटे व्रत कहे जाते हैं। स्थानांग (५.१) समवायांग (२५), आवश्यक, आवश्यक-नियुक्ति आदि अनेक आगम ग्रन्थों में इनके सम्बन्ध में विवेचन प्राप्त है।
आचार्य हेमचन्द्र ने अपने योगशास्त्र के प्रथम, द्वितीय तथा तृतीय प्रकाश में व्रतों का विस्तृत वर्णन किया है । गृहस्थों द्वारा आत्म-विकास हेतु परिपालनीय अणुव्रतों का वहाँ बड़ा मार्मिक विश्लेषण किया गया है । जैसा कि उल्लेख है, आचार्य हेमचन्द्र ने गुर्जरेश्वर कुमारपाल के लिए योगशास्त्र की रचना की थी। कुमारपाल साधनापरायण जीवन के लिए अति उत्सुक था। राज्य व्यवस्था देखते हुए भी वह अपने को आत्म-साधना में लगाये रख सके, उसकी यह भावना थी। अतएव गृहस्थ-जीवन में रहते हुए भी आत्म-विकास की ओर उत्तरोत्तर अग्रसर हुआ जा सके, इस अभिप्राय से हेमचन्द्र ने गृहस्थ-जीवन को विशेषत: दृष्टि में रखा ।
आचार्य हेमचन्द्र ऐसा मानते थे कि गार्हस्थ्य में भी मनुष्य उच्च साधना कर सकता है, ध्यान-सिद्धि प्राप्त कर सकता है । उनके समक्ष उत्तराध्ययनसूत्र का वह आदर्श था, जहाँ “संति एगेहि भिक्खूहि गारत्था संजुमुत्तरा" इन शब्दों में तितिक्षापरायण, संयमोन्मुख गृहस्थों को किन्हीं-किन्हीं साधुओं से भी उत्कृष्ट बताया है। आचार्य शुभचन्द्र ऐसा नहीं मानते थे। उनका कहना था कि बुद्धिमान्-विवेकशील होने पर भी साधक, गृहस्थाश्रम, जो महादुःखों से
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