Book Title: Kesarimalji Surana Abhinandan Granth
Author(s): Nathmal Tatia, Dev Kothari
Publisher: Kesarimalji Surana Abhinandan Granth Prakashan Samiti
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शब्द-अर्थ सम्बन्ध : जैन दार्शनिकों की दृष्टि में
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पदार्थ को प्रदीप-प्रकाश प्रकट मात्र करता है, उत्पन्न नहीं; वैसे ही अर्थ को शब्द अभिव्यक्त मात्र करता है, उत्पन्न नहीं। इसी को भर्तृहरि' ने वेदान्त मत का आश्रय लेकर इस प्रकार कहा कि जैसे ज्ञान के दर्शन में ज्ञाता आत्मा की चरम परिणति ज्ञेय ब्रह्म के रूप में होती है, वैसे ही शब्द द्वारा अर्थ अपने रूप को प्रकट करता है, उत्पन्न नहीं।
बौद्ध दार्शनिकों का मत इन दोनों मतों से सर्वथा भिन्न है। प्रथमत: तो बौद्ध दार्शनिकों का कहना है कि इन दोनों में कोई सम्बन्ध है ही नहीं और यदि अत्यन्त भिन्न प्रतीत होने वाले इन दोनों में एकत्व माना गया तो गाय और घोड़ा में भी एकत्व मानना पड़ेगा (जो किसी को भी स्वीकार्य नहीं हो सकता), क्योंकि इन दोनों (शब्द
और अर्थ) में अन्वय और व्यतिरेक सम्बन्ध का अभाव है। एक से दूसरे की उत्पत्ति होती है, यह भी नहीं कह सकते, क्योंकि मृत्तिका, दण्ड, जल, कुम्भकार, चक्रादि सम्बन्ध से (शब्द-व्यापार के बिना ही) घटोत्पत्ति होती है, वैसे ही शब्द भी बाह्य अर्थ के न रहने पर वक्ता की इच्छा मात्र से तालु, कण्ठादि के व्यापार से ही उत्पन्न होता है। इसके अतिरिक्त शब्द वक्ता के मुंह में रहता है जबकि अर्थ (वस्तु) की स्थिति बाह्य है। इसलिए इनमें किसी प्रकार का सम्बन्ध नहीं हो सकता। सम्बन्ध तो दो सम्बद्ध वस्तुओं में ही सम्भव है। यहाँ यह आशंका हो सकती है कि फिर लोक में वस्तु की प्रतीति कैसे होती है ? इसके समाधान में बौद्ध दार्शनिकों का कहना है कि वस्तु की प्रतीत तो अपोह से होती है, न कि शब्द और अर्थ के किसी सम्बन्ध विशेष से । अपोह का अर्थ है निषेध । यह दो प्रकार का है-पर्युदास और प्रसज्यप्रतिषेध । इनके भी पुनः भेद-प्रभेद हैं।'
जैन मत जैन दार्शनिकों का दृष्टिकोण सदैव समन्वयात्मक रहा है जिसके मूल में उनका अनेकान्त का सिद्धान्त है। अन्य मतों के समान इनके मत में दोषों की उद्भावना की सम्भावना नहीं रहती है। विवेचना का तरीका ही इनका निराला है । शब्द-अर्थ के सम्बन्ध में इनका कहना है कि निश्चित रूप से हम यह नहीं कह सकते हैं कि इनमें नित्य सम्बन्ध ही है अथवा अनित्य सम्बन्ध ही है और न ही यह कह सकते हैं कि अर्थ-प्रतीति अपोह अथवा अन्यापोह के माध्यम से होती है।
__ये नैयायिकों के समान शब्द और अर्थ के बीच तदुत्पत्ति अर्थात् जन्य-जनकभाव सम्बन्ध नहीं मानते । इनका कहना है कि स्वार्थ (अर्थभूतवस्तु) की सत्ता न रहने पर भी शब्द विद्यमान रहता है। क्योंकि कभी-कभी हम एक अर्थ (वस्तु) को किसी अन्य ही शब्द से सम्बोधित करते हैं । सत्ताशून्य पदार्थों को भी शब्द द्वारा घोषित करना सम्भव होता है, उसी तरह अर्थ को भी शब्द द्वारा।
न ही ये मीमांसकों के समान शब्द और अर्थ के बीच तादात्म्य अथवा नित्य सम्बन्ध स्वीकार करते हैं। इनका कहना है कि यदि इनमें नित्य सम्बन्ध होता तो शब्द और अर्थ में पृथक्त्व नहीं होना चाहिए, जबकि लोक-व्यवहार
१. आत्मरूपं यथा ज्ञाने ज्ञ यरूपं च दृश्यते । अर्थरूपं तथा शब्दे स्वरूपं च प्रकाशते ॥
-वाक्यप्रदीप, ब्रह्मकाण्ड, कारिका, ५०. प्रसज्यप्रतिषेधश्च गौरगौर्न भवत्ययम् । अतिविस्पष्टं एवायमन्यापोहोऽवगम्यते ॥ ........"द्विविधोऽपोहः पर्युदास निषेधतः । द्विविधः पर्युदासोऽपि बुद्धयात्मार्थात्मवेदतः ।।
-तत्त्वसंग्रह
३. अर्थासन्निधिभावेन तद्दृष्टावन्यथोक्तितः ।
अन्याभावनियोगाच्च न तदुत्पत्तिरप्यलम् ।
-शास्त्रवार्तासमुच्चय, का० ६४६.
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