Book Title: Kesarimalji Surana Abhinandan Granth
Author(s): Nathmal Tatia, Dev Kothari
Publisher: Kesarimalji Surana Abhinandan Granth Prakashan Samiti
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इस वैभिन्न्य के होते हुए भी सभी का लक्ष्य एक ही रहा है- परम सत्य की प्राप्ति और परमात्मा से आत्म-साक्षात्कार ।
साधारणत: जैन धर्म से रहस्यभावना अथवा रहस्यवाद का सम्बन्ध स्थापित करने पर उसके सामने आस्तिक-नास्तिक होने का प्रश्न खड़ा हो जाता है । परिपूर्ण जानकारी के बिना जैन धर्म को कुछ विद्वानों ने नास्तिक दर्शनों की श्रेणी में बैठा दिया है । यह आश्चर्य का विषय है। इसी कल्पना पर यह मन्तव्य व्यक्त किया जाता है कि जैनधर्म रहस्यवादी हो ही नहीं सकता क्योंकि वह वेद और ईश्वर को स्वीकार नहीं करता । यही मूल में भूल है ।
जैन रहस्यवाद
प्राचीनकाल में जब वैदिक संस्कृति का प्राबल्य था, उस समय नास्तिक की परिभाषा वेद- निन्दकों के रूप में कर दी गयी । परिभाषा के रूप निर्धारण में तत्कालीन परिस्थिति का विशेष हाथ था । वेद-निन्दक अथवा ईश्वर को सृष्टि का कर्ता हर्ता, धर्ता के रूप में स्वीकार न करने वाले सम्प्रदायों में प्रमुख सम्प्रदाय थे जैन और बौद्ध; इसलिए उनको नास्तिक कह दिया। इतना ही नहीं, निरीश्वरवादी मीमांसक और सांख्य जैसे वैदिक दर्शन भी नास्तिक कहे जाने लगे 1
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सिद्धान्ततः नास्तिक की यह परिभाषा नितान्त असंगत है। पारलौकिक अस्तित्व की स्वीकृति और अस्वीकृति पर निर्भर करती है। करने वाला आस्तिक और उसे अस्वीकार करने वाला नास्तिक कहा जाना चाहिए था । पाणिनिसूत्र “अस्ति नास्ति दिष्टं मति ( ४ ४ ६० ) से भी यह बात पुष्ट हो जाती है। जैन संस्कृति के अनुसार आत्मा अपनी विशुद्धतम् अवस्था में स्वयं ही परमात्मा का रूप ग्रहण कर लेती है, दैहिक और मानसिक विकारों से दूर होकर परमपद की प्राप्ति कर लेती है । इस प्रकार यहाँ स्वर्ग, नरक, मोक्ष आदि की व्यवस्था स्वयं के कर्मों पर आधारित है । अतः जैनदर्शन की गणना नास्तिक दर्शनों में करना नितान्त असंगत है ।
जैन रहस्यभावना भी श्रमण संस्कृति के अन्तर्गत आती है। बौद्ध साधना ने जैन साधना से भी बहुत कुछ ग्रहण किया है। जैन साधकों ने आत्मा को केन्द्र के रूप में स्वीकार किया है। यही आत्मा तब संसार में जन्ममरण के चक्कर से छूट जाता है, तब उसे विशुद्ध अथवा विमुक्त वहा जाता है। आत्मा की इसी विशुद्धावस्था को परमात्मा कहा गया है। परमात्मपद की प्राप्ति स्व-पर-विवेकरूप भेदविज्ञान के होने पर ही होती है। भेदविज्ञान की प्राप्ति मिया-दर्शन मिथ्याज्ञान और मिया चारित्र के स्थान पर सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यक्चारिष के समन्वित आचरण से हो जाती है । इस प्रकार आत्मा द्वारा परमात्मपद की प्राप्ति ही जैन रहस्यभावना की अभिव्यक्ति है ।
१.
स्वानुभूति
रहस्यभावना के लिए प्रमुख तस्य स्वानुभूति है। अनुभूति का अर्थ है अनुभव बनारसीदास ने शुद्ध निश्चय नय, शुद्ध व्यवहार नय और आत्मानुभव को मुक्ति का मार्ग बताया है। उन्होंने अनुभव का अर्थ बताते हुए कहा है कि आत्म-पदार्थ का विचार और ध्यान करने से चित्त को जो शान्ति मिलती है तथा आत्मिक रस का आस्वादन करने से जो आनन्द मिलता है, उसी को अनुभव कहा जाता है
नाटक समयसार, १७.
नास्तिक और अस्तिक की परिभाषा वस्तुतः आत्मा और परलोक के अस्तित्व को स्वीकार
वस्तु विचारत ध्यावते, मन पावै विश्राम ।
रसस्वादत सुख अपने अनुभो याको नाम ॥
कवि बनारसीदास ने इस अनुभव को चिन्तामणि रत्न, शान्तिरस का कूप, मुक्ति का मार्ग और मुक्ति का स्वरूप माना है । इसी का विश्लेषण करते हुए आगे उन्होंने कहा है कि अनुभव के रस को जगत के ज्ञानी लोग रसायन
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