Book Title: Kesarimalji Surana Abhinandan Granth
Author(s): Nathmal Tatia, Dev Kothari
Publisher: Kesarimalji Surana Abhinandan Granth Prakashan Samiti
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कर्मयोगी श्री केसरीमलजी सुराणा अभिनन्दन ग्रन्थ : चतुर्थ खण्ड
कहते हैं। इसका आनन्द कामधेनु चित्रावेली के समान है। इसका स्वाद पंचामृत भोजन के समान है। यह कर्मों का क्षय करता है और परमपद से प्रेम जोड़ता है । इसके समान अन्य कोई धर्म नहीं है
अनुभव चिंतामणि रतन, अनुभव है रस कूप । अनुभव मारग मोक्ष को, अनुभव मोख स्वरूप ॥१८॥ अनुभौ के रस को, रसायन कहत जग । अनुभौ अभ्यास यहु तीरथ की ठौर है ।
अनुभौ की केलि यहै, कामधेनु चित्रावेलि । अनुभौ को स्वाद पंच अमृत कौ कौर है ।। अनुभौ करम तोरे सौ परम प्रीति जोरे ।
अनुभौ समान न धरम कोऊ और है ॥१६॥ रूपचंद पांडे ने इस अनुभूति को आत्म ब्रह्म की अनुभूति कहकर उसे दिव्यबोध की प्राप्ति का साधन बताया है। चेतन इसी से अनन्त दर्शन-ज्ञान-सुख-वीर्य प्राप्त करता है और स्वत: उसका साक्षात्कार कर चिदानन्द चैतन्य का रसपान करता है
अनुभौ अभ्यास में निवास सुध चेतन को, अनुभौ सरूप सुध बोध को प्रकास है। अनुभौ अपार उपरहत अनन्तज्ञान, अनुभौ अनीत त्याग ज्ञान सुखरास है। अनुभौ अपार सार आप ही को आप जानै, आप ही में व्याप्त दीस, जामें जड़ नास है। अनुभौ अरूप है सरूप चिदानंद चंद,
अनुभौ अतीत आठ कर्म स्यो अकास है ॥२ जिस प्रकार वैदिक संस्कृति में ब्रह्मवाद अथवा आत्मवाद को अध्यात्मनिष्ठ माना है उसी प्रकार जैन संस्कृति में भी रहस्यवाद को अध्यात्मवाद के रूप में स्वीकार किया गया है। पं० आशाधर ने अपने योग विषयक ग्रन्थ को 'अध्यात्मरहस्य' उल्लिखित किया है। इससे यह स्पष्ट है कि जैनाचार्य अध्यात्म को रहस्य मानते थे।
बनारसीदास ने इस अध्यात्मरहस्य को अभिव्यक्ति का साधन अपनाया है
इस ही सुरस के सवादी भये ते तो सुनौ, तीर्थकर चक्रवति शैली अध्यात्म की।
बल वासुदेव प्रति वासुदेव विद्याधर, चारण मुनिन्द्र इन्द्र छेदी बुद्धि भ्रम की ॥
अध्यात्मवाद का तात्पर्य है आत्मचिन्तन । आत्मा के दो भाव हैं-आगम रूप और अध्यात्मरूप । आगम का तात्पर्य है वस्तु का स्वभाव और अध्यात्म का तात्पर्य आत्मा-अधिकार अर्थात् आत्म द्रव्य । संसार में जीवन के दो भाव विद्यमान रहते हैं---आगम रूप कर्म पद्धति और अध्यात्मरूप शुद्धचेतनपद्धति । कर्मपद्धति में द्रव्यरूप और भावरूप कर्म
आते हैं । द्रव्यरूपकर्म पुद्गल परिणाम कहलाते हैं और भावरूपकर्म पुद्गलाकार आत्मा की विशुद्ध परिणति रूप परिणाम कहलाते हैं। शुद्ध चेतना पद्धति का तात्पर्य है शुद्धात्म परिणाम । वह भी द्रव्यरूप और भावरूप दो प्रकार का है।
१.
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नाटक समयसार, १८-१९. अध्यात्म सवैया, १. बनारसीदास, ज्ञानबावनी, पृ० ८.
३.
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