Book Title: Kesarimalji Surana Abhinandan Granth
Author(s): Nathmal Tatia, Dev Kothari
Publisher: Kesarimalji Surana Abhinandan Granth Prakashan Samiti
View full book text
________________
जैन धर्म और लोकतन्त्र
१८६.
..
..........
........
......
......
..
..
..
..
..
..
..
-.
-.
-.-.-.
-.-.
-.
-.-.
-.
-...
लोकतन्त्र में स्वतन्त्रता की जो अनिवार्यता है उसे भी सकारात्मक और सामाजिक सन्दर्भ में ग्रहण करना होता है। प्रो० लास्की के ही शब्दों में पुनः कहना होगा कि स्वतन्त्रता "उस वातावरण को बनाये रखना है जिसमें मनुष्यों को अपने जीवन का सर्वोतन विकास करने की सुविधा प्राप्त हो"।' अतः स्वतन्त्रता की समस्या का हल भी समानता में ही निहित है।
जैन दर्शन के कर्म सिद्धान्त के प्रकाश में इस समानता और स्वतन्त्रता तथा लोकतन्त्र में मान्य व्यक्ति की गरिमा को स्पष्ट देखा और समझा जा सकता है। अपने ही कर्मों के प्रभाव से व्यक्ति का इहलोक और परलोक बनता है। अपने प्रयास से ही मनुष्य मोक्ष भी प्राप्त कर सकता है। सबके लिए मार्ग और द्वार समान रूप से खुले हैं । सम्यक्ज्ञान, सम्यक्दर्शन और सम्यक्चारित्र के द्वारा वह अग्रसर हो सकता है। जैन दर्शन कर्मफल का नियमन करने का काम किसी बाह्य शक्ति में नहीं मानता । अच्छे-बुरे कर्मों का आत्मा पर संस्कार पड़ता रहता है, वह अदुष्ट है; जब तक उसका फल नहीं मिल जाता, तब तक वह आत्मा के साथ रहता है। यह दर्शन कर्म को स्वतन्त्र द्रव्य मानता है। कर्म अनन्त परमाणुओं के स्कन्ध हैं। वे जीवात्मा की अच्छी-बुरी प्रवृत्तियों के द्वारा उससे बँध जाते हैं। कर्मपरमाणुओं का जीवात्मा पर गहरा प्रभाव पड़ता है। कर्म ग्रहण करने में जीवात्मा स्वतन्त्र नहीं होता, परन्तु जीव और कर्म का संघर्ष चलता रहता है। जब जीव के काल आदि की अनुकूल लब्धियाँ होती हैं तब वह कर्मों का क्षय भी कर सकता है। पूर्वजन्मों और इस जन्म में पहले बँधे हुए कर्मों की स्थिति और शक्ति नष्ट करने के लिए तपस्या आदि प्रयास करने का जीवात्मा के पास सदा ही अवसर है ; वह स्वविवेक से अवसर का उपयोग करते हुए विकास कर सकता है। यह अवसर की समानता है जिसका लाभ उठा कर व्यक्ति बन्धनों से स्वतन्त्र हो सकता है। अहिंसा, सत्य, अस्तेय, ब्रह्मचर्य और अपरिग्रह के व्रतों के पालन से मनुष्य कर्मों को पछाड़ कर चरम विकास की ओर अग्रसर होता है। यहाँ भाग्यवाद नहीं, स्वतः का प्रयास और उसके लिए प्राप्त अवसर की समानता एवं उपयोगिता द्रष्टव्य है । इस प्रकार आध्यात्मिक दर्शन लौकिक नैतिकता में लोकतन्त्र की भित्ति प्रस्तुत करता है।
लोकतन्त्र बहुमत का शासन है। सबका एक मत सामान्यतया हो नहीं सकता किन्तु सबको अपना मत प्रकट करने का अधिकार होना चाहिये । ये मत भिन्न-भिन्न ही नहीं, कभी-कभी परस्पर तीव्र विरोध भरे भी हो सकते हैं। सच्चे लोकतन्त्र की यह भी एक कसौटी है कि विचार चाहे कितने ही भिन्न क्यों न हों, उन्हें प्रकट करने का अवसर सबको मिलना चाहिये। अधिनायकतन्त्र में एक ही विचारधारा में सबको बहना होता है। वहाँ यह होगा कि एक विशेष मत वाले (मतवाले ?) तो हो सत्ता में और अन्य मत वाले हों जेल में । लोकतन्त्र में विरोध और विरोधी का भी स्थान और सम्मान होता है । "निन्दक बपुरा पर उपकारी, 'दादू' निन्दा करे हमारी", लोकतन्त्र के लिए भी यह सन्त-वचन सत्यवचन ही होगा। विरोधी के भाषण मोमक्खी की भाँति तीखे, काटते हुए लग सकते हैं। गोमक्खी के काटने से लोकतन्त्र मरेगा नहीं, क्योंकि प्रभावित अंग की सोजिश को वह सरल हास विवेक से कम करने में समर्थ होता है। यदि कोई लोकतन्त्र ऐसा न कर सके और इसके बजाय हिंसात्मक प्रतिक्रिया प्रदर्शित करे तो समझना चाहिये कि उसके रक्त में कोई विकार है। जब एथेंस में प्राचीन यूनानी लोकतन्त्र ने सुकरात को, उसकी तर्क-शैली और विचार प्रणाली के कारण, विष का प्याला पिलाने का कदम उठाया तो वह स्पष्ट चिह्न था कि उस शासन-प्रणाली के कदम डगमगाने लगे थे ; वह विकृत, भ्रष्ट और अवनत हो चुकी थी।
लोकतन्त्र में कई ऐसे अवसर आ सकते हैं कि किसी व्यक्ति या वर्ग का मत सबसे भिन्न हो; परन्तु हो सकता है कि उस अल्पमत की बात में भी सत्य हो या आगे चलकर वह सही साबित हो । इसलिए सबको निर्भय होकर अपना मत रखने का अवसर देना और सहिष्णुतापूर्वक विरोध को समझने-समझाने का सामर्थ्य लोकतन्त्र का बलसम्बल है। कई बार आज का अल्पमत कल बहुमत सिद्ध हो जाता है। लक्ष्य को या मार्ग को अपनी-अपनी दृष्टि से
1. "By liberty I mean the eager maintenance of that atmosphere in which men have the opportunity to be their best selves."
-A Grammar of Politics, p. 142.
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org