Book Title: Kesarimalji Surana Abhinandan Granth
Author(s): Nathmal Tatia, Dev Kothari
Publisher: Kesarimalji Surana Abhinandan Granth Prakashan Samiti
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मुक्त अवस्था में आत्मा और परमात्मा का तादात्म्य हो जाता है । इसी तादात्म्य को समरस कहा गया है । जैन धर्म में आत्मा और परमात्मा का यह तादात्म्य अखण्ड ब्रह्म के अंश के रूप में स्वीकार नहीं किया गया, वहाँ तो विकारों से मुक्त होकर आत्मा ही परमात्मा बन जाता है। जैन धर्म में आत्मा के तीन स्वरूप वर्णित हैं - बहिरात्मा, अन्तरात्मा और परमात्मा । बहिरात्मा मिथ्यादर्शन के कारण विशुद्ध नहीं हो पाता । अन्तरात्मा में विशुद्ध होने की क्षमता है पर वह विशुद्ध अभी हुआ नहीं तथा परमात्मा आत्मा का समस्त कर्मों से विमुक्त और विशुद्ध स्वरूप है । आत्मा के प्रथम दो रूपों को साधक और अन्तिम रूप को साध्य कहा जा सकता है। साधक अनुभूति करने वाला है और साध्य अनुभूति तत्त्व ।
३. संसार का स्वरूप ।
४. संसार से मुक्त होने का उपाय ( भेदविज्ञान ) ।
५. मुक्त अवस्था की परिकल्पना (निर्वाण ) ।
जैन रहस्यवाद
परमात्मस्वरूप को सकल और निष्कल के रूप में विभाजित किया गया है । सकल वह है जिसके ज्ञानावरण, दर्शनावरण, मोहनीय और अन्तराय इन चार घातिया कर्मों का विनाश हो चुका हो और जो शरीरवान हो । जैन परिभाषा में इसे अरहन्त, अरिहन्त अथवा अर्हत् कहा गया है। हिन्दी साहित्य में इसी को सगुण ब्रह्म कहा गया है । आत्मा की निष्कल अवस्था में वेदनीय, आयु, नाम और गोत्र इन चार अघातिया कर्मों का भी विनाश हो जाता है। और आत्मा निर्देही बन जाता है। इसी को निर्गुण ब्रह्म की संज्ञा दी गई है । उत्तरकालीन जैन कवियों ने आत्मा की सकल और निष्कल अवस्था की भावविभोर होकर भक्ति प्रदर्शित की है और भक्तिभाव में प्रवाहित होकर दाम्पत्यमूलक अहेतुक प्रेम का चित्रण किया है, जिसमें आत्मा परमात्मा से मिलने के लिए विरह में तड़पती है, समरस होने का प्रयत्न करती है । समरस हो जाने पर वह उस अनुभूतिगत आनन्द को चिदानन्द चैतन्य रस का पान करती है । रहस्यभावना के प्रमुख तत्त्व रहस्यवाद का क्षेत्र असीम है । उस अनन्तशक्ति के स्रोत को पाना ससीम शक्ति के सामर्थ्य के बाहर है । अतः ससीमता से असीमता और परम विशुद्धता तक पहुँच पाना तथा चिदानन्द चैतन्यरस का पान करना साधक का अथवा गुह्य है इसलिए साधक में विषय के प्रति साध्य समीप होता चला जायेगा । रहस्य को
मूल उद्देश्य रहता है । इस अवस्था की प्राप्ति का मार्ग अत्यन्त रहस्य जिज्ञासा और औत्सुक्य जितना अधिक जाग्रत होगा उतना ही उसका समझने और अनुभूति में लाने के लिए निम्नलिखित प्रमुख तत्त्वों का आधार लिया जा सकता है
१. जिज्ञासा और औत्सुक्य ।
२. संसारचक्र में भ्रमण करने वाले आत्मा का स्वरूप ।
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रहस्यभावना का साध्य, साधन और साधक
रहस्यभावना का प्रमुख साध्य, परमात्मपद की प्राप्ति करना है, जिसके मूल साधन हैं- स्वानुभूति और भेदविज्ञान | किसी विषय वस्तु का जब किसी प्रकार से साक्षात्कार हो जाता है तब साधन के अन्तरंग में तद्विषयक विशिष्ट अनुभूति जागरित हो जाती है । साधना की सुप्तावस्था में चराचर जगत् साधक को यथावत् दिखाई देता है । उसके प्रति उसके मन में मोहगर्भित आकर्षण भी बना रहता है । पर साधक के मन में जब रहस्य की यह गुत्थि समझ में आ जाती है कि संसार का प्रत्येक पदार्थ अशाश्वत है, क्षणभंगुर है किन्तु यह सत् चित् रूप आत्मा उसका अपना ही स्वरूप है, तब उसके मन में एक अपूर्व आनन्दानुभूति होती है । इसे हम शास्त्रीय परिभाषा में भेदविज्ञान कह सकते हैं । साधक को भेदविज्ञान की यथार्थ अनुभूति हो जाना ही रहस्यवादी साधना का साध्य है । शास्त्रीय परिभाषा में इसे हम निर्वाण कह सकते हैं ।
साध्य सदैव रहस्य की स्थिति में रहता है । सिद्ध हो जाने पर फिर वह रहस्यवादी के लिए अज्ञात अथवा
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