Book Title: Kesarimalji Surana Abhinandan Granth
Author(s): Nathmal Tatia, Dev Kothari
Publisher: Kesarimalji Surana Abhinandan Granth Prakashan Samiti
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ब्रह्माण्ड : आधुनिक विज्ञान और जैन दर्शन
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के सभी ज्योतिपिण्ड एक केन्द्र में स्थित थे। एक विस्फोट के साथ ये सभी ज्योतिपिण्ड केन्द्र के चारों ओर छितराने लगे एवं आज भी अत्यन्त तीव्र गति से छितराते जा रहे हैं। इनके छितराने से जो स्थान रिक्त होता है वहाँ सतत नये द्रव्य का निर्माण होता रहता है और अन्तरिक्ष में पदार्थ का घनत्व सदा एक समान बना रहता है। नित नये द्रव्य के निर्माण से ज्योतिपिण्डों का जन्म तथा उनका अनन्त शून्य में निरन्तर विस्तृत होने की घटनाएँ अनन्त काल तक चलती रहेंगी। अत: विश्व उम्र की परिधि के बाहर है। डा० फेड होयल के सिद्धान्त की प्रमुख बात यह है कि "निरन्तर नये द्रव्य का निर्माण" हो रहा है जिससे विस्तारमान विश्व में रिक्तता नहीं आती। लेकिन नये द्रव्य के निर्माण की कल्पना सारहीन है। भौतिकशास्त्र का कोई सिद्धान्त शून्य में से नये पदार्थ का निर्माण स्वीकार नहीं करता। पदार्थ अविनाशी है। न तो इसका निर्माण होता है और न विनाश ही। ब्रह्माण्ड के आरम्भ में जितना पदार्थ रहा होगा उतना आज भी है और भविष्य में भी उतना ही रहेगा। असत् से सत् के निर्माण की कल्पना ही हास्यास्पद है। इस सिद्धान्त को प्रबल विरोध का सामना करना पड़ा फिर भी "अरबों वर्ष पहले जैसा ब्रह्माण्ड था वैसा आज भी है," मान्यता इसे महत्त्व प्रदान करती है।
ब्रह्माण्ड की उत्पत्ति व आयु के सम्बन्ध में ज्योतिविदों की मान्यताएँ कितनी विषम हैं, यह स्पष्ट है। अब हम विचार करेंगे कि विश्व स्थिर व सीमाबद्ध है या विस्तारवान् एवं सीमाहीन । इस बारे में भी वैज्ञानिक मतैक्य नहीं है। अधिकांश ज्योतिविद ब्रह्माण्ड को अस्थिर व विस्तारमान बताते हैं । हबल, डा. जार्जगेमो, माटिन रीले, फेड होयल आदि के अनुसार अन्तरिक्ष स्थित समस्त पदार्थ गतिशील हैं। विश्व का निरन्तर विस्तार हो रहा है, समस्त ज्योतिपिण्ड एक दूसरे से अत्यन्त तीव्र वेग से दूर हटते जा रहे हैं। हम से दस लाख प्रकाशवर्ष तक दूरस्थ आकाशगंगाओं के दूर हटने की गति प्रति सैकण्ड १०० मील है जबकि २५ करोड़ प्रकाशवर्ष दूर की आकाश-गंगाओं के दूर हटने की गति प्रति सैकण्ड २५००० मील (प्रकाश के वेग का सातवाँ अंश) है। इस प्रकार विश्व असीम व खुला है। विश्व के प्रमुख वैज्ञानिक नोबेल पुरस्कार विजेता डा. आइंस्टीन का मत है कि ब्रह्माण्ड निरन्तर विस्तारमान है लेकिन इसकी एक सीमा है। एक सीमा के भीतर ही विस्तार सम्भव है। उनके अनुसार विश्व सीमाबद्ध है, अनन्त व सीमाहीन नहीं। डा० आइन्स्टीन द्वारा ब्रह्माण्ड को सीमित व निश्चित आकार (अण्डाकार) मानने का कारण गुरुत्वाकर्षण क्षेत्र है। ब्रह्माण्ड स्थित असंख्य ज्योतिपिण्ड अपने-अपने गुरुत्वाकर्षण क्षेत्रों को परस्पर समबद्ध ज्यामितिक आकार में गठित है। प्रत्येक पिण्ड अपने स्थान पर अडिग है तथा दूसरे पिण्ड से निश्चित दूरी पर, निश्चित मार्ग पर भ्रमण-परिक्रमण करता है। ये ज्योतिपिण्ड न कभी निकट आते हैं, न दूर हटते हैं। अपनी सुनिश्चित स्थिति बनाये रखने का कारण परस्पर गुरुत्वाकर्षण का प्रभाव है। विश्व का प्रत्येक पदार्थ गुरुत्वाकर्षण से प्रभावित है यहाँ तक कि प्रकाश-किरण भी। जैसा माना जाता है--प्रकाश सदा सीधी रेखा में चलता है, वास्तव में गुरुत्वाकर्षण के प्रभाव में सीधा नहीं चलता। अन्य पिण्डों के वक्राकार मार्ग की भाँति इसमें भी वक्रता आ जाती है। चूंकि किसी गुरुत्वाकर्षण क्षेत्र की बनावट गुरुत्वाकर्षण वाली वस्तु की राशि व वेग से निर्धारित होती है अतः यह निष्कर्ष निकाला गया कि सम्पूर्ण ब्रह्माण्ड की बनावट उसके अन्दर समस्त पदार्थों के योग के प्रभाव से सीमित होगी। विश्व की असंख्य पदार्थीय मात्राओं द्वारा उत्पन्न वक्रता सीमित व निश्चित आकार वाले ब्रह्माण्ड की धारणा पुष्ट करती है। डा० आइंस्टीन ने असीम व खुले विश्व की मान्यता को स्वीकार नहीं किया क्योंकि यदि असीम ब्रह्माण्ड में अनन्त पदार्थ होता तो सम्पूर्ण गुरुत्वाकर्षण शक्ति भी अनन्त होती जिससे अनन्त प्रकाश व ताप उत्पन्न होता और ब्रह्माण्ड स्वयं जलकर भस्म हो जाता।
__ विश्व के सतत विस्तार और शून्य में विलीन होने की मान्यता का आधार वर्णपट्टमापक यन्त्र है । जो प्रकाश की लालरेखा का विचलन बताता है जिसे 'डोपलर का प्रभाव' कहा गया है। वर्णपट्टमापक यन्त्र पर सुदूर स्थित आकाश-गंग:ओं का जो प्रकाश उभरता है उसमें लाल रेखा विचलित होकर अधिक लाल होती हुई प्रतीत होती है। किसी प्रकाश का आधार ज्योतिपिण्ड यदि दूर हटता हो तो प्रकाश अधिकाधिक लाल होता हुआ प्रतीत होता है इसके विपरीत प्रकाश का आधार यदि निकट आ रहा हो तो प्रकाश नीला होता हुआ प्रतीत होता है। प्रकाश के
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