Book Title: Kesarimalji Surana Abhinandan Granth
Author(s): Nathmal Tatia, Dev Kothari
Publisher: Kesarimalji Surana Abhinandan Granth Prakashan Samiti
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कर्मयोगी श्री केसरीमलजी सुराणा अभिनन्दन ग्रन्थ : चतुर्थ खण्ड
वर्तमान युग में नैतिकता को जीवन दृष्टि क्या हो?
यदि हम इन वैषम्यों के कारणों एवं उनके निराकरण के सूत्रों का विश्लेषण करें तो अन्त में यह पाते हैं कि इन सब के मूल में मानसिक वैषम्य है । मानसिक वैषम्य आसक्तिजन्य है । वह आसक्ति का ही दूसरा नाम है । वैयक्तिक जीवन में आसक्ति के एक रूप, जिसे दृष्टि-राग कहा जाता है, से ही साम्प्रदायिक ता, धर्मान्धता और विभिन्न राजनैतिक मतवादों एवं आर्थिक विचारणों का जन्म होता है, जो हमारे सामाजिक जीवन में वर्गभेद एवं संघर्ष का सृजन करते हैं आसक्ति के दूसरे रूप संग्रहवृत्ति और विषयासक्ति से असमान वितरण और भोगवाद का जन्म होता है जिसमें वैयक्तिक एवं सामाजिक विषमताओं और सामाजिक अस्वास्थ्य (रोग) के कीटाणु जन्म लेते हैं भौर उसी में पलते हैं।
वर्तमान युग के अनेक विचारकों ने आसक्ति के स्थान पर अभाव को ही समग्र वैषम्यों का कारण माना और उसकी भौतिक पूर्ति के प्रयास को ही वैयक्तिक एवं सामाजिक वैषम्य के निराकरण का आवश्यक साधन माना। लेकिन इसमें आंशिक सत्य होते हुए भी इसे नैतिक जीवन का अन्तिम सत्य उद्घोषित नहीं किया जा सकता है । मनुष्य केवल भौतिक आवश्यकताओं की पूर्ति के बल पर नहीं जी सकता है। क्राइस्ट ने ठीक ही कहा था कि मनुष्य के लिए केवल रोटी पर्याप्त नहीं है इसका यह अर्थ नहीं है कि वे बिना रोटी के जी सकते हैं। रोटी के बिना तो नहीं जी सकते लेकिन अकेली रोटी से भी नहीं जी सकते हैं । रोटी के बिना जीना असम्भव है और अकेली रोटी पर या रोटी के लिए जीना व्यर्थ है । जैसे पौधों के लिए जड़ें होती हैं, ऐसे ही मनुष्य के लिए रोटी या भौतिक वस्तुएँ हैं। जड़ें अपने आपके लिए नहीं है । फूलों और फलों के लिए वे हैं । फूल और फल न आवे तो उनका होना निरर्थक है । यद्यपि फूल और फल उनके बिना नहीं आ सकते हैं तब भी फूल और फल उनके लिए नहीं है । जीवन में निम्न आवश्यक हैं उच्च के लिए और उच्च के होने में ही वह सार्थक है। मनुष्य को रोटी या भौतिक वस्तुओं की जरूरत है ताकि वह जी सके और जीवन के सत्य और सौन्दर्य की भूख को भी तृप्त कर सके । रोटी, रोटी से भी बड़ी भूखों के लिए आवश्यक है। लेकिन यदि कोई बड़ी भूख नहीं है तो रोटी व्यर्थ हो जाती है। रोटी, रोटी के ही लिए नहीं है । अपने आप में उसका कोई भी मू और अर्थ नहीं है। उसका अर्थ है उसके अतिक्रमण में । कोई जीवन मूल्य जो कि उसके पार निकल जाता है, उसमें ही उसका अर्थ है ?'
वस्तुतः हमने भौतिक मूल्यों की पूर्ति को ही अन्तिम मानकर बहुत बड़ी गलती की है। भौतिक पूर्ति अन्तिम नहीं है । यदि वही अन्तिम होती तो आज मनुष्य में उच्च मूल्यों का विकास पहले की अपेक्षा अधिक होना था क्योंकि वर्तमान युग में हमारी भौतिक सुख-सुविधाएँ पहले की अपेक्षा अधिक बढ़ी हैं लेकिन फिर भी उच्च मूल्यों का विकास उतना नहीं हो पाया है। आर्थिक विकास और व्यवस्था होने पर भी आज का सम्पन्न मनुष्य उतना ही अर्थ-लोलुप है जितना पहले था। वैज्ञानिक विकास अपने चरम शिखर पर है, फिर भी आज का विज्ञानजीवी मनुष्य उतना ही आक्रामक है, जितना पहले था। शिक्षा का स्तर बहुत ऊँचा होने पर भी आज का शिक्षित मनुष्य उतना ही स्वार्थी है, जितना पहले था। आर्थिक, वैज्ञानिक और शैक्षणिक विकास ने मनुष्य के व्यवहार को बदला है, पर उसी को बदला है, जो उनसे सम्बन्धित है। मनुष्य में ऐसी अनेक मूलप्रवृत्तियाँ हैं, जिन्हें ये नहीं बदल सकते हैं। क्रोध, अभिमान, कपट, लोभ, भय, शोक, घृणा, काम-वासना, कलह-ये मनुष्य की शाश्वत मूलप्रवृत्तियाँ हैं । आर्थिक अभाव तथा अज्ञान के कारण जो सामाजिक दोष उत्पन्न होते हैं, वे आर्थिक और शैक्षणिक विकास से मिट जाते हैं किन्तु मूलप्रवृत्तियों से उत्पन्न होने वाले दोष उनसे नहीं मिटते हैं। मूलप्रवृत्तियों का नियन्त्रण या शोधन आध्यात्मिकता से ही हो सकता है, इसलिए समाज में उसका अस्तित्व अनिवार्य है।
__ जो विचारक यह मानते हैं कि आधुनिक विज्ञान की सहायता से मनुष्य की सभी आवश्यकताओं की पूर्ति
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नये संकेत, पृ० ५७. नैतिकता का गुरुत्वाकर्षण, पृ० २५
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