Book Title: Kesarimalji Surana Abhinandan Granth
Author(s): Nathmal Tatia, Dev Kothari
Publisher: Kesarimalji Surana Abhinandan Granth Prakashan Samiti
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हमारे शिक्षालय और लोकोत्सव १५ ..................................................................... ...
हमारे लोक-जीवन में वे समस्त परम्पराएँ झलक रही हैं, जिनमें धर्म, अध्यात्म, जीवनोत्कर्ष की बड़ी-बड़ी बातें छिपी हैं । उनमें बड़े-बड़े शास्त्रों का सार छिपा है । क्या हम उनसे बच्चों को अवगत रखते हैं ? आज हमारे लोक-देवता तथा तत्सम्बन्धी चलने वाले गीतों एवं गाथाओं में हमारे जीवन का वह सार छिपा है, जो बड़े-बड़े शास्त्रों में उल्लिखित है।
उन्हीं सब जीवनादर्शों को जीवित रखने के लिए हमारे पूर्वजों ने लोकोत्सवों की योजना पारित की है, जिन्हें मनाने के लिये हजारों-लाखों लोग दौड़ पड़ते हैं । वे उन्हें मनाने के लिए तर्क-वितर्क में नहीं पड़ते हैं। वे केवल उनके द्वारा अपने जीवन में आनन्द पूरना जानते हैं। इन्हीं अटूट आस्थाओं के कारण वे सुखी भी हैं। अभाव-ग्रस्त जीवन से वे दुःखी नहीं हैं । वे जो रात को कबीर, मीरा, दादू के गीत गाते हैं, उनमें जीवन का यह सार छिपा है--यह संसार कागद की पुड़िया है । सराय है, मुसाफिरखाना है । आज यहाँ कल वहाँ, चलते ही रहना है, तो फिर संसार का बोझ ढोकर अपने मन को बोझिल क्यों बनाया जाय ? क्या हमारे बच्चों में ये संस्कार भरने के लिये हमारे पास कुछ है ?
संस्कार निर्माण छोटी उम्र में जो कुछ दिया जायगा, वही कायम रहेगा। बाद में जब बच्चे बड़े हो जायेंगे, उन्हें इस ज्ञान की आवश्यकता होगी, तब वे किताबें ढूंढेंगे। उस समय उन्हें यह ज्ञान ऊपर से थोपा हुआ नजर आयेगा। उनका मन उसे ग्रहण नहीं करेगा । आज अनेक विदेशी हमारे देश की सड़कों पर बैठे, घूमते-फिरते दीवाने से चलते-फिरते नजर आते हैं। वे अपने पास नशे की चीजें रखते हैं। मन को हलका रखने को वे उसका सेवन करते हैं। वे गरीब नहीं, भिखमंग नहीं । उनके माता-पिताओं के पास लाखों का धन है । वे केवल मानसिक रूप से दुःखी रहने के कारण हमारे देश में आये हैं। उन्होंने कभी पढ़ा था कि भारत की संस्कृति गंगा के किनारे, पहाड़ों पर, तथा गरीबी में निवास करती है। इसी सुख की तलाश में वे हिन्दुस्तान में आते हैं । वे लाखों-करोड़ों की सम्पत्ति छोड़कर आये हैं। उन्हें इस देश में बंगलों की जरूरत नहीं, सड़क, गली, पहाड़ तथा चबूतरों पर साधारण प्राणियों की तरह जीना ही उन्हें अच्छा लगता है । उनका जीवन विकृत इसलिए है कि उनको बचपन से ही सम्भाला नहीं गया है । उनको अपने माता-पिताओं के जीवन से, सिवाय विकृतियों के और कुछ भी सीखने को नहीं मिला है। इसीलिये वे अपने माता-पिता से दुःखी हैं, और उनके माता-पिता उनसे।
भगवान की दुआ है कि हमारे बच्चों में अभी तक ये विकृतियाँ प्रविष्ट नहीं हुई हैं, परन्तु जो कुछ भी हमें पश्चिमी सभ्यता की झूठी नकल से मिला है, उसमें विकृतियाँ आना लाजिमी है। पति-पत्नी एक दूसरे से असन्तुष्ट हैं। उन्हें गरीबी में सादगी से रहना नहीं आता, उनकी आदतें खराब हो गई हैं, परम्परा का उन्हें ज्ञान नहीं है, संस्कृति से वे कोसों दूर हैं । जीवन में उनके किसी प्रकार की आस्था नहीं है तो उनके बच्चे भी हिप्पी जैसा जीवन जीने लागेंगे । आज थोड़ा-बहुत शुरू भी ऐसा ही हुआ है। माता-पिता की बात बच्चे नहीं मानते । उनका उन पर काबू नहीं रहा और न बच्चों को कुछ संस्कार देने की उनमें क्षमता है।
हमारी जिम्मेदारी अत: अब समस्त जिम्मेदारी हमारे विद्यालयों एवं शिक्षाक्रम पर आ जाती है । इन समस्याओं पर गहराई से सोचने का कार्य शिक्षाविदों पर है । अंग्रेजों के जमाने में हमें जो शिक्षा मिली थी, वह गुलामी की शिक्षा थी। हमारा देश आजाद हुआ। उसके बाद तो हमारी शिक्षा भारतीय संस्कृति एवं जीवन के अनुकूल होनी चाहिए थी। इस ओर प्रयास भी हुए हैं, परन्तु अभी तक निश्चित चित्र सामने नहीं आया है। बच्चों की पाठ्य-पुस्तकों में, शिक्षा क्रम में, तथा विद्यालयों के वातावरण में, हमारी इन थातियों के लिए पर्याप्त स्थान रहना चाहिए। जहाँ विश्व का ज्ञान उन्हें दिया जाय, वहाँ भारतीय संस्कृति से उन्हें सराबोर किया जाना भी बहुत आवश्यक है। उनकी इतिहास, भूगोल, विज्ञान, समाजविज्ञान, साहित्य की पुस्तकों में इस तरह की सामग्री के लिए आग्रह होना चाहिए। स्कूल जीवन में जो कोर्स की पढ़ाई से बाहर की प्रवृत्तियाँ पनपाई जा रही हैं, उनमें इनकी प्रधानता रहनी चाहिए। हर लोकोत्सव, लोकपर्व, त्यौहार, विद्यालयों में सही ढंग से मानाया जाना चाहिए। बच्चों को जहाँ पहाड़ों पर घूमने ले जाया जाता है, भूगोल,
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