Book Title: Kesarimalji Surana Abhinandan Granth
Author(s): Nathmal Tatia, Dev Kothari
Publisher: Kesarimalji Surana Abhinandan Granth Prakashan Samiti
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कर्मयोगी श्री केसरीमलजी सुराणा अभिनन्दन ग्रन्थ : तृतीय खण्ड
प्रजाति की आध्यात्मिक शक्ति के साथ व्यक्ति का क्रमिक सामंजस्य है। टी रेमण्ट का कहना है कि शिक्षा विकास का वह क्रम है जिसके द्वारा मनुष्य अपने को शैशवास्था से परिपक्वावस्था तक आवश्यकतानुसार भौतिक, सामाजिक एवं आध्यात्मिक वातावरण के अनुकूल बना लेता है।'
निष्कर्षतः शिक्षा मानव-व्यक्तित्व के सर्वांगीण विकास एवं सुदृढ़ चरित्र-निर्माण के साथ-साथ वातावरण के अनुकूल ढलने की क्षमता भी प्रदान करती है।
शिक्षा मानव-जीवन का शुद्धिकरण है-संस्कार है। महावीर ने कहा- "पहम णाणं तओ दया" अर्थात् सर्वप्रथम ज्ञान और फिर क्रिया । ज्ञान या शिक्षा हमारे सही नेत्र हैं जिनके द्वारा हम अच्छे-बुरे का विवेक कर सकते हैं, जीवन का विकास कर सकते हैं। संसार के सभी उन्नत देशों की उन्नति का मूल उस देश के नागरिकों का शिक्षित होना है।'
किसी राष्ट्र की उन्नति का मूल वहाँ की शिक्षित जनता है, तब यह आवश्यक हो जाता है कि शिक्षा जैसे महत्त्वपूर्ण पहलू पर वहां की सरकार की उपयुक्त दृष्टि हो । स्वतन्त्रता से पूर्व अंग्रेजों द्वारा हमारे देश में जिस शिक्षा की व्यवस्था की गयी , उसका माध्यम अंग्रेजी भाषा थी और शिक्षा का लक्ष्य भारतीयों में से केवल क्लर्क पैदा करना था । उच्च पद अंग्रेजों के लिए सुरक्षित थे। उस समय सरकारी नौकरी भी केवल अंग्रेजी पढ़े-लिखे युवकों को ही प्रदान की जाती थी। दुर्भाग्य से स्वतन्त्रता के पश्चात शिक्षा भारत में सदैव उपेक्षा की वस्तु बनी रही । हमारी शिक्षा-व्यवस्था आज भी उसी ब्रिटिश शिक्षा-व्यवस्था पर आधारित है । अनेक प्रयत्नों के बाद भी हमारी शिक्षा के मूल ढाँचे में परिवर्तन न किया जा सका । सन् १९५० में हमारे संविधान द्वारा यह घोषणा की गयी थी कि आने वाले बीस वर्षों में भारतवर्ष के ६ से १४ वर्ष के सभी बच्चों को निःशुल्क प्राथमिक शिक्षा प्रदान कर दी जायगी, लेकिन आज तक भी हम उस लक्ष्य को पूरा नहीं कर पाये हैं और अब यह अवधि १५ वर्ष और बढ़ाकर सन् १९८५ तक कर दी गयी है। ६ से १४ तो क्या ६ से ११ वर्ष तक के सभी बालकों को हम स्कूलों में नहीं ला पाये, तथापि कुछ राज्यों जैसे मद्रास व केरल में वर्तमान समय में अनिवार्य रूप से निःशुल्क माध्यमिक शिक्षा प्रदान की जा रही है एवं वहाँ का साक्षरता प्रतिशत भी अन्य राज्यों की अपेक्षा अधिक है। शिक्षा जैसे महत्त्वपूर्ण विषय को नीति-निर्देशक तत्त्वों में रखा गया जिसे पूर्ण करना सरकार का केवल नैतिक दायित्व होगा।
इस लक्ष्य को पूरा न कर पाने का कारण यह है कि आज भी बहुत से गाँव ऐसे हैं जहाँ विद्यालय न होने के कारण वहाँ के बच्चे शिक्षा नहीं प्राप्त कर पाते । बहुत से विद्यालय ऐसे हैं जहाँ केवल एक ही अध्यापक है और वही समस्त प्राथमिक कक्षाओं में अध्यापन कार्य करता है। जहाँ विद्यालय हैं भी, उनमें भी बहुत से स्थान दुर्गम होने के कारण वहाँ किसी प्रकार का निरीक्षण नहीं हो पाता । प्राथमिक विद्यालयों में विद्यमान भय व आतंक के कारण प्राथमिक शिक्षा में अपव्यय व अवरोधन की समस्या भी हमारे सम्मुख मुंह बाये खड़ी है । अधिक से अधिक छात्रों को विद्यालय में आने हेतु प्रेरित करने के लिए हमें न केवल नि:शुल्क शिक्षा की ही व्यवस्था करनी होगी वरन् अधिक निर्धन गाँव के छात्रों के लिए पाठ्य-पुस्तकों एवं विद्यालयी वेश-भूषा की सुविधा भी प्रदान करनी होगी। विद्यालयों में बहुत से ऐसे बालक भी आते हैं, जिन्हें पूरा भोजन भी उपलब्ध नहीं होता और भूख के कारण वे ठीक से पढ़ाई नहीं कर पाते । कुछ छात्र विद्यालयों में विद्यनान आतंक के भय से बीच में ही स्कूल छोड़ देते है। अत: अपव्यय व अवरोधन की समस्या के समाधान के लिए आवश्यक है कि समुचित निरीक्षण के द्वारा वहाँ के आतंकपूर्ण वातावरण को समाप्त किया जाय, साथ ही विद्यालयों में छात्रों के लिए अल्पाहार की व्यवस्था भी आवश्यक है। यद्यपि सरकार द्वारा प्राथमिक स्कूलों में विद्यार्थियों के लिए अल्पाहार की व्यवस्था की गयी है, लेकिन वह सब उन तक पहुंच ही नहीं पाता है।
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१. शिक्षा के तात्त्विक सिद्धान्त : शिक्षा की परिभाषा-रामबाबू गुप्त, पृ०६-१३. २. पं० उदय र अभिनन्दन ग्रन्थ, पृ० ४८.
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