Book Title: Kesarimalji Surana Abhinandan Granth
Author(s): Nathmal Tatia, Dev Kothari
Publisher: Kesarimalji Surana Abhinandan Granth Prakashan Samiti
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बच्चों में चरित्र-निर्माण : दिशा और दायित्व
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प्रकार से बच्चों का पालन-पोषण हो जाए और बच्चा नौकरी पर लग जाए। इन अभिभावकों को बच्चों के चरित्रनिर्माण की चिन्ता कहाँ रहती है ?
उच्च, मध्यमवर्गीय, उच्चकुलीन-अभिजात्य वर्ग के या बड़े व्यापारियों-उद्योगपतियों, अधिकारियों के बच्चों के चरित्र-निर्माण की बात सोचें पर इन्हें बच्चों का चरित्र कहाँ बनाना है ? ये जानते हैं कि ईमानदार, सत्यवादी, गुणवान, शीलवान और कर्मठ कार्यकर्ता तो भूखे मरते हैं। इन्हें चरित्र-निर्माण करके क्या बच्चों को भूखा मारना है ? अपना उद्योग-धन्धा चौपट करना है ? इन अभिभावकों का ध्येय बच्चों को अच्छे से अच्छे स्कूल, इंगलिश, बाल मन्दिर, फिर पब्लिक स्कूल में रखकर गिट-पिट सिखानी है, मैनर्स सिखाने हैं, काले शोषक अफसर बनाने हैं इसके लिए चरित्र कहाँ चाहिये ? इन्हें चाहिए ऊँची डिग्रियाँ । इन बच्चों की माताओं को फुरसत भी कहाँ है ? वे क्लब-पोसायटी में जायें या बच्चे का चरित्र-निर्माण करें ? बच्चे तो नौकर-नौकरानियाँ (वे भी तो मुफ्त के सरकारी खर्च पर मिलने वाले) पाल सकती हैं। इनके बच्चे तो 'क्लब' 'एबीसी' तो बाहर सीखते ही हैं हँगना-मूतना भी कान्वेन्ट और इंगलिश स्कूल में सीखते हैं । २५-५० रुपये खर्च किये महीने के और चरित्र-निर्माण से लगाकर सब कार्यों से मुक्ति पाए । ये आधुनिक माताएँ इन्हें भारतीय धर्म, दर्शन, संस्कृति, ज्ञान क्यों सिखाएँ ? क्या इन्हें दकियानूसी बनाना है ?
___अभिभावकों में से पिता को ले तो प्रथमत: चरित्र-निर्माण का जिम्मा वह माँ पर छोड़ता है और फिर शिक्षक पर । उसे रोटी-अर्जन से ही फुर्सत नहीं मिलती। पिता के स्वयं के चरित्र का हवाला हम पहले दे चुके हैं। बच्चा घर में देखता है कि पिता को झूठ बोलना पड़ता है। बेईमानी और रिश्वत से ही अधिक पैसा आता दीखता है। काला बाजार और दो नम्बर से ही भवन बनते देखता है तो जिस घर में अन्न ही इस प्रकार का आता हो तो उस बच्चे को शिक्षक कितनी ही राम और हरिश्चन्द्र, महावीर और गौतम की कहानियाँ और नीति के पाठ बताएँ वह बच्चा नीतिवान और चरित्रवान नहीं बन सकता ।
कुछ माता-पिता अपने काले कारनामों-धन्धों से दु:खी होकर बच्चों को उससे मुक्त करना चाहते हैं अत: उन्हें (उसी काले-पीले धन से) अच्छी शिक्षा और प्रशिक्षण दिलाना चाहते हैं पर वे बच्चे भी बिगड़ते देखे जाते हैं। आखिर काली कमाई का अन्न तो असर करेगा ही।
बच्चा घर के दूषित वातावरण में घुटे, घृणा-द्वेष कलह और लड़ाई-झगड़ों को झंले, टूटते-बिखरते परिवार के आश्रय में रहे तो इसका वहाँ दम घुटता है । वह बाहर आता है पर बाहर भी तो दम घोंटू वातावरण है? कितनी विकृति है ? स्कूल-कॉलेजों में पढ़ने का वातावरण कम और उच्छंखलता, दादागीरी-गुण्डागीरी हावी होती जा रही है। शिक्षक कौन से परिश्रमी ज्ञानवान और चरित्रवान मिल रहे हैं ? यदि इक्के-दुक्के समर्पित व्यक्ति मिलते भी हैं तो वे बच्चे का चरित्र अत्यल्प प्रभावित कर पाते हैं। वैसे आज के शिक्षक का गुणवान, चरित्रवान होना आवश्यक कहाँ है ? चरित्र प्रमाण-पत्र तो सभी सरकारी-गैर सरकारी नौकरियों के लिए आवश्यक है पर आज तक किसी को 'दुश्चरित्र' है ऐसा प्रमाण-पत्र दिया जाता नहीं देखा। सारे शिक्षक इस प्रकार चरित्रवान हैं चाहे वे शिक्षण के साथ खेती-बाड़ी या अन्य धन्धे करते रहें और कक्षा में बच्चों का पोषण आहार स्वयं हजम कर जाएँ, चाहे धूम्रपान करें, चाहे शराब पीएँ, चाहे स्कूल-कॉलेज में गुटबन्दी और राजनीति चलाएँ। इनसे बच्चों का कौनसा चरित्र बनेगा ? बच्चा तो देखकर सीखता है चाहे शिक्षक कहते रहें कि "हमारे चरित्र की कमियाँ मत देखो, हमारे ज्ञान से सीखो"। फिर ज्ञान भी कौनसा ? सरकार द्वारा निर्धारित ज्ञान । अध्यात्म, धर्म, दर्शन, संस्कृति के पाठ पढ़ाना संविधान ने रोक रखा है। सरकार तो मात्र व्यावहारिक शिक्षा दिलाती है जिसका सम्बन्ध आजीविका से हो (हालाँकि वह भी नहीं हो रहा है)।
वह काल गया जब सामान्य जन से लगाकर राजा, महाराजा के बच्चे ऋषि-मुनियों के आश्रम में रहकर शास्त्रों और शस्त्रों की शिक्षा अर्जित करते थे। वह जमाना भी अभी-अभी गया जब माता-पिता बच्चे को स्कूल में भर्ती करते समय कहते थे—“माड़सा, इसका मांस-मांस आपका और हड्डी-हड्डी हमारी।" अब तो चाहे छात्र नहीं
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