Book Title: Kesarimalji Surana Abhinandan Granth
Author(s): Nathmal Tatia, Dev Kothari
Publisher: Kesarimalji Surana Abhinandan Granth Prakashan Samiti
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कर्मयोगी श्री केसरीमलजी सुराणा अभिनन्दन ग्रन्थ : तृतीय खण्ड
ऐसा साहित्य गर्भवती माँ तक पढ़ने के लिये पहुँचाना चाहिये । धर्मगुरुओं को ऐसे उपदेश देने चाहिये और सद् साहित्य वाचन एवं श्रवण की प्रवृत्ति बढ़ानी चाहिये ।
सरकार का विशेष दायित्व है कि शिशु शारीरिक और मानसिक रूप से स्वस्थ जन्में और स्वस्थ विकसित हों। इस हेतु औषधालयों की लापरवाही रोकी जानी चाहिये। बाल्यकाल में शिशु का पोषण एवं प्रशिक्षण स्वस्थ हों, इस हेतु सरकार के साथ समाजसेवी संस्थाओं को भी सुविधाएँ प्रदान करनी चाहिये ।
माँ का पुनीत कर्तव्य है कि उसके बच्चे नीतिवान, ईमानदार कर्त्तव्यनिष्ठ, परिश्रमी, साहसी और चरित्रबान बनें। हर माँ शायद देना चाहती है पर केवल लाड़-प्यार एवं खुद अच्छा विताने पहनाने से वह वैसा नहीं बन जाता । अन्तर्मन में ममता पर बाह्य में कठोर रहते हुए शिक्षा एवं संस्कार देने होंगे । शिक्षित माताएँ छोटे-छोटे बच्चों को बाल मन्दिर में ढकेलकर उन्हें ममताविहीन नहीं करें अपितु स्वयं पढ़ायें । इस आयु में उसकी बहुत सी आदतें सुधारी जा सकती हैं। नौकर या बालमन्दिर बालों से अच्छे चरित्र और संस्कारों की कल्पना करना है। बच्चा प्रथमतः माँ को आदर्श मानकर आचरण करेगा । वह माँ के गुण-अवगुण, आचार-विचार से अत्यधिक प्रभावित होता है अतः माँ को अवगुणों से दूर, द्वेष- कलह से परे आचरण करना होगा। बच्चे को अन्याय-अत्याचार का मुकाबला करने की सीख देनी होगी व्यावहारिक शिक्षा के साथ उसे कुछ आध्यात्मिक बातें बातों-बातों में बतानी चाहिये । बच्चा बड़ी उत्सुकता से स्वयं के आगमन-गमन, पृथ्वी, आकाश, प्रकृति के बारे में जानना चाहता है तभी उसे कुछ आत्मिक ज्ञान दिया जा सकता है। नासमझ समझकर टालना या झिड़की देना उसमें कुण्ठाएँ उत्पन्न करता है । यदि म नित्य नियम, समता - सामायिक, पूजन-अर्चन-दर्शन करती हो, साधनामयी जीवन जीती हो तो बच्चा उससे अवश्य प्रभावित होगा । वह स्वयं सीख लेगा ।
सम्पन्न माँताएँ समझा सकती हैं कि अन्न एवं अन्य वस्तुओं का अपव्यय न हो चूँकि लाखों बच्चे अध-पेट रहते हैं । इससे अपव्यय भी रुकेगा और इस सामाजिक अव्यवस्था के प्रति बच्चे में चिन्तन जगेगा, उसके विरुद्ध विद्रोह भड़केगा । ॐ-नीच क्यों है— नहीं होना चाहिये, मृत्यु-भोज बुरा है, तिलक, दहेज बुरा है आदि बातें समझाकर इन बुराइयों के प्रति भावना माँ ही जगा सकती है। ऋषि-मुनियों, वीरों, योद्धाओं, शहीदों के कहानी - किस्से माँ बात-बात में बता सकती है । पुतलीबाई से हरिश्चन्द्र की कहानी सुनकर मोहनदास, महात्मा गाँधी बन गये तो क्या अब ऐसा सम्भव नहीं है । आज माताएँ उन्हें स्वयं कुछ सिखाने की बजाय रोते-बिलखते भी जबरन कई घण्टों के लिये बाल-मन्दिरों या इंग्लिश स्कूलों में भेजकर पिण्ड छुड़ाती हैं। माँ सबसे बड़ा गुरु माना गया है तो क्या वह पुस्तकों में लिखा रहने के लिये है ? धर्म और नीति का पाठ मां से अच्छा और कोई नहीं सिखा सकता है।
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'सदा सच बोलो' हजार बार लिखाने से भी वह सत्य बोलना नहीं सीखेगा यदि वह पारिवारिक और सामाजिक समव्यवहार में सत्यं की हार होते देखेगा । अतः माँ-बाप का कर्तव्य है कि उनका आचरण नीतिमय हो, धर्ममय हो। उनके विचार उच्च हों। वे सादगी से और सन्तुलित जीवन-यापन करें। स्वयं देवैमनस्य, काम, क्रोध, लोभ आदि विकारों से हटकर जीवन जीयें तब हम पायेंगे कि बच्चे भी परिजवान बन रहे हैं। हम बच्चों को सीख दें उससे पहले स्वयं सीख लेने को तैयार रहें तो सुधार के आसार दीखेंगे । अभावग्रस्त जीवन जीने वाले माता-पिता भी अपना उच्च जीवन रखते हुए बच्चों को संस्कारयुक्त बना सकते हैं । सामाजिक विषमता से पीड़ित होने के कारण वे इस व्यवस्था से लड़ने के लिये बच्चे को अधिक जुझारू बना सकते हैं । पिता को स्वयं चरित्र एवं गुणों का आदर्श उपस्थित करना होगा। आचरण और कर्म द्वारा पाठ पढ़ाना होगा कि भूखे मर जायँ पर बेईमानी और अन्याय नहीं करेंगे, न सहेंगे ।
जहाँ अभिभावक अशिक्षित, गरीब और साधनहीन हों वहाँ बच्चों के चरित्र-निर्माण में शिक्षक की भूमिका बढ़ जाती है। बच्चे शिक्षक के आचार-विचार, भाषण - सम्भाषण, रहन-सहन, आदतों से भी शिक्षा ग्रहण करते हैं या आदतें बिगाड़ लेते हैं। आज भी कुछ शिक्षक कई बच्चों के लिये प्रेरणास्रोत एवं आदर्श प्रतिमान होते हैं अतः शिक्षक को अपना जीवन संयमित नियत्रित रखते हुए बच्चों के समक्ष आदर्श उपस्थित करना होगा।
आदेश, उपदेश
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