Book Title: Kesarimalji Surana Abhinandan Granth
Author(s): Nathmal Tatia, Dev Kothari
Publisher: Kesarimalji Surana Abhinandan Granth Prakashan Samiti
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बच्चों का चरित्र-निर्माण
होनी चाहिए । चरित्र निर्माण के लिये धन की आवश्यकता नहीं। मनुष्य के पास यदि परिश्रम और ईमानदारी हो तो उसके सहारे ही वह मानवों की सर्वोच्च श्रेणी में स्थान प्राप्त कर सकता है जो उस सम्पत्ति के स्वामी हैं वे भले ही सांसारिक पदार्थों की दृष्टि से धनी न बन सकें; पर वे सम्मान और प्रसिद्धि की दृष्टि से महान् बनकर दूसरों के लिये प्रेरणा के स्रोत बन सकते हैं ।
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चरित्र का निर्माण विविध सूक्ष्म परिस्थितियों में होता है। प्रत्येक चेष्टा, प्रत्येक विचार, प्रत्येक अनुभूति हमारे चरित्र-निर्माण में सहायक है, क्योंकि हमारी आदतों का हमारे भावी जीवन पर गहरा प्रभाव पड़ता है।
बालक और चरित्र
बालक सचमुच किसी देश के प्राण और रक्त होते हैं। वे ही देश की रीढ़ की हड्डी माने जाते हैं। या यों कहें कि वे राष्ट्र की नींव है, तो कोई अतिशयोक्ति नहीं होगी भयोंकि बालक के परित्र से ही राष्ट्र का चरित्र बनता है । इसी कारण बालक के चरित्र-निर्माण की समस्या और भी विकट रूप धारण किये हुए है । घर का और पाठशाला का वातावरण इतना दूषित हो गया है कि बालक को यहाँ से उचित मार्गदर्शन नहीं मिल पा रहा है ।
बालक के चरित्र-निर्माण की आवश्यकता क्यों ?
बालक के चरित्र-निर्माण की समस्या उसकी चंचल मनोवृत्ति व स्वभाव से ही उत्पन्न होती हैं । प्रत्येक बच्चा अपना विकास स्वयं करता है। बच्चे के विकास और चरित्र-निर्माण में हम क्या योगदान दें, यह महत्त्वपूर्ण प्रश्न है ।
बच्चे का चरित्र-निर्माण एक साथ नहीं होता है। वह विभिन्न सोपानों से होकर निर्मित होता है। उसके लिए उचित वातावरण तैयार करना पड़ता है क्योंकि बच्चे की भावी शिक्षा, शारीरिक गठन, आचार, व्यवहार आदि वातावरण पर निर्भर हैं। वातावरण जीवन की गति को मोड़ देता है। अतः उचित वातावरण निर्मित करना अभिभावक, शिक्षक, संस्था और देश के लिये परम आवश्यक है ।
चरित्र-निर्माण के संभावित उपाय
(१) घर - चरित्र - निर्माण की सबसे महत्त्वपूर्ण और प्रथम पाठशाला घर है । घर में प्रत्येक बालक सर्वोत्तम चारित्रिक शिक्षण प्राप्त करता है। यदि घर का वातावरण ठीक हो तो घर ही सबसे बड़ा प्रशिक्षण देने वाला विद्यालय बन जाता है । व्यवहार ही मनुष्य की रचना करता है, किन्तु जिस प्रकार का साँचा होता है, उसमें से निर्मित होने वाली वस्तु का स्वरूप भी उसी प्रकार का होता है, अतः घर ही मनुष्य की रचना करता है। घरेलू प्रशिक्षण से व्यवहार, मन और चरित्र सभी प्रभावित होते हैं पर में ही हृदय फूलता है, आदतें पड़ती हैं, बुद्धि जागृत होती है और सांचे में चरित्र उलता है पर ही वह स्रोत है जहां से सिद्धान्त और उपदेश प्रकट होते हैं, जो समाज का निर्माण करते हैं। बच्चों के मन में जो छोटे-छोटे संस्कार या विचार-बीज बो दिये जाते हैं वे ही आगे चलकर तरुवर के रूप में प्रकट होते हैं । प्राथमिक विद्यालयों से ही राष्ट्र अंकुरित हैं। बच्चा जब संसार में जाता है, असहाय होता है, उसे अपने पोषण तथा संस्कार के लिए घर के लोगों पर पूर्णतः निर्भर या आश्रित रहना पड़ता है। जन्म लेते ही पहले श्वास के साथ बालक का प्रशिक्षण प्रारम्भ हो जाता है ।
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कहने का तात्पर्य है कि बचपन की शिक्षा-दीक्षा से अनुमान लगाया जा सकता है कि गुणों या दोषों के बीजाणु बाल्यकाल में मनुष्य के शारीरिक-मानसिक क्षेत्र में पनप जाते हैं। लाई प्रागम ने कहा है कि १८ और ३० महीने की अवस्था के बीच में बालक बहुत कुछ शिक्षण प्राप्त कर लेता है । इसी अवस्था में वह पदार्थ जगत् के विषय में, अपनी शक्तियों के बारे में, और दूसरों के विषय में जितना कुछ सीख जाता है, उतना आयु के सम्पूर्ण शेष भाग में
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