Book Title: Kesarimalji Surana Abhinandan Granth
Author(s): Nathmal Tatia, Dev Kothari
Publisher: Kesarimalji Surana Abhinandan Granth Prakashan Samiti
View full book text
________________
१२०
कर्मयोगी श्री केसरीमलजी सुराणा अभिनन्दन ग्रन्थ : चतुर्थ खण्ड
-.-.
-.-.
--.-.-.
-.-.-.-.-.
-.-.
-.-.-.-.-.-.-.-.-.-.-.
है।' इस अर्थभेद के होने पर 'अरहंत' और 'अरिहंत' ये दोनों एक ही धातु के दो रूपों से निष्पन्न दो शब्द नहीं होते किन्तु भिन्न-भिन्न अर्थ वाले दो शब्द बन जाते हैं।
आवश्यकसूत्र के नियुक्तिकार ने अरिहंत, अरहंत के तीन अर्थ किए हैं---- १. पूजा की अर्हता होने के कारण अरहंत । २. अरि का हनन करने के कारण अरिहंत । ३. रज-कर्म का हनन करने के कारण अरिहंत । वीरसेनाचार्य ने 'अरिहंताणं' पद के चार अर्थ किये हैं-- १. अरि का हनन करने के कारण अरिहंत । २. रज का हनन करने के कारण अरिहंत । ३. रहस्य के अभाव से अरिहंत ।। ४. अतिशय पूजा की अर्हता होने के कारण अरिहंत ।
प्रथम तीन अर्थ अरि+हन्ता-इन दो पदों के आधार पर किए गए हैं और चौथा अर्थ अर्ह, धातु के 'अरहंता' पद के आधार पर किया गया है । भाषायी दृष्टि से 'नमो' और 'णमो' तथा 'अरहंताणं' और 'अरिहंताणं' इन दो में मात्र रूपभेद है, किन्तु मन्त्रशास्त्रीय दृष्टि से 'न' और 'ण' के उच्चारण की भिन्न-भिन्न प्रतिक्रिया होती है । 'ण' मूर्धन्य वर्ण है । उसके उच्चारण से जो घर्षण होता है, जो मस्तिष्कीय प्राण-विद्युत् का संचार होता है, वह 'न' के उच्चारण से नहीं होता।
अरहताणं के अकार और अरिहंताणं के इकार का भी मन्त्रशास्त्रीय अर्थ एक नहीं है । मन्त्रशास्त्र के अनुसार अकार का वर्ण स्वर्णिम और स्वाद नमकीन होता है तथा इकार का वर्ण स्वर्णिम और स्वाद कषैला होता है ।
अकार पुल्लिग और इकार नपुंसकलिग होता है। अरुहंताणं
यह पाठ-भेद भगवती सूत्र की वृत्ति में व्याख्यात है । वृत्तिकार अभयदेवसूरि ने इसका अर्थ अपुनर्भव किया है। जैसे बीज के अत्यन्त दग्ध हो जाने पर उसके अंकुर नहीं फूटता, वैसे ही कर्म-बीज के अत्यन्त दग्ध हो जाने पर भवांकुर नहीं फूटता ।'५
१. आवश्यकनियुक्ति, गाथा १२१:
अरिहंति वंदणनमंसणाणि अरिहंति पूअसक्कारे । सिद्धिगमणं च अरिहा अरहंता तेण वुच्चंति ॥ आवश्यकनियुक्ति, गाथा ६२२ : देवासुरमणुएसु अरिहा पूआ सुरुत्तमा जम्हा ।
अरिणो इयं च हंता अरहंता तेण वुच्चंति ॥ ३. धवला, षटखंडागम १।१।१, पृष्ठ ४३-४५ :
अरिहननादरिहन्ता । ....."रजोहननाद् वा अरिहन्ता । ......"रहस्याभावाद् वा अरिहन्ता । ....... अतिशयपूजाह
त्वात् वार्हन्तः । ४. विद्यानुशासन, योगशास्त्र, पृ०६०,६१. ५. भगवती वृत्ति, पत्र ३ :
अरुहंताणमित्यपि पाठान्तरं, तत्र अरोहद्भ्यः, अनुपजायमानेभ्यः क्षीणकर्मबीजत्वात्, आह च-. दग्धे बीजे यथाऽत्यन्तं, प्रादुर्भवति नांकुरः । कर्मबीजे तथा दग्धे न रोहति भवांकुर: ॥
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org