Book Title: Kesarimalji Surana Abhinandan Granth
Author(s): Nathmal Tatia, Dev Kothari
Publisher: Kesarimalji Surana Abhinandan Granth Prakashan Samiti
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कर्मयोगी श्री केसरीमलजी सुराणा अभिनन्दन ग्रन्थ : चतुर्थ खण्ड
अनिन्द्रियप्रत्यक्ष केवल मन से उक्त बारह अर्थभेदों में होता है और अवग्रह आदि चारों रूप होता है। अत: उसके १४४४१२=४८ भेद हैं। इस प्रकार इन्द्रियप्रत्यक्ष और अनिन्द्रियप्रत्यक्ष के कुल २८८+४८-३३६ भेद हैं। यत: ये दोनों प्रत्यक्ष मतिज्ञान अथवा संव्यवहारप्रत्यक्ष हैं, अतः ये ३३६ भेद उसके जानना चाहिए। अतीन्द्रियप्रत्यक्ष के दो भेद हैं-१. विकल और २. सकल । विकल अतीन्द्रियप्रत्यक्ष के भी दो भेद हैं—१. अवधि और २. मन:पर्यय । सकल अतीन्द्रिय प्रत्यक्ष एक ही प्रकार का है और वह है- केवलज्ञान । इनका विशेष विवेचन प्रमाण परीक्षा में उपलब्ध है।
इस प्रकार जैन दर्शन में प्रमाण के मूलत: प्रत्यक्ष और परोक्ष ये दो ही भेद माने गये हैं। प्रमाण का विषय
जैन दर्शन में वस्तु अनेकान्तात्मक स्वीकार की गयी है । अतः प्रत्यक्ष प्रमाण हो, चाहे परोक्ष (अनुमानादि) प्रमाण, सभी सामान्य-विशेषरूप, द्रव्य-पर्यायरूप, भेदाभेदरूप, नित्यानित्यरूप आदि अनेकान्तरूप वस्तु को विषय करते अर्थात् जानते हैं । केवल सामान्य, केवल विशेष आदि रूप वस्तु को कोई प्रमाण विषय नहीं करते, क्योंकि वैसी (एकान्तरूप) वस्तु नहीं है। वस्तु तो विरोधी नानाधर्मों को लिए हुए अनेकान्तरूप है और वही प्रमाण का विषय है।
प्रमाण का फल
प्रमाण का फल अर्थात् प्रयोजन वस्तु को जानना और प्रमाता के अज्ञान को दूर करना है । यह उसका साक्षात् फल है। वस्तु को जानने के उपरान्त उसके उपादेय होने पर उसमें ग्रहण बुद्धि, हेय होने पर उसमें हेयबुद्धि
और उपेक्षणीय होने पर उपेक्षा (तटस्थता) बुद्धि होती है। ये बुद्धियाँ प्रमाण का परम्परा फल हैं। प्रत्येक प्रमाता को ये दोनों फल प्राप्त होते हैं। स्मरण रहे, ये दोनों फल प्रमाण तथा प्रमाता से कथंचित् भिन्न और कथंचित् अभिन्न हैं। दोनों एक ही प्रमाता को होते हैं, इसलिए अभिन्न हैं और प्रमाण तथा फल का भेद होने से वे प्रमाण और फल कथंचित् भिन्न हैं।
नय
प्रमाण का विवेचन करने के बाद यहाँ नय का भी विवेचन आवश्यक है, क्योंकि प्रमाण की तरह नय भी वस्तु के ज्ञान का अपरिहार्य साधन है । जहाँ पदार्थों (वस्तुओं) का यथार्थ ज्ञान प्रमाण द्वारा अखण्ड (समग्र अनेकान्त) रूप में होता है वहाँ नय द्वारा उनका ज्ञान खण्ड-खण्ड (एक-एक धर्म--एकान्त) रूप में होता है : धर्मी (पूर्णवस्तु) का ज्ञान प्रमाण और धर्मों-अंशों का ज्ञान नय है। दूसरे शब्दों में विवक्षा या अभिप्राय के अनुसार होने वाला अंशग्राही ज्ञान नय है। यह नय भी मूलतः दो प्रकार का है-१. द्रव्याथिक और २. पर्यायाथिक । द्रव्याथिकनय द्रव्य (वस्तु के शाश्वत अंश) को और पर्यायाथिक पर्याय (वस्तु के अशाश्वत अंश-उत्पाद-व्यय) को ग्रहण करता है। अध्यात्म शास्त्र की दृष्टि से निश्चयनय और व्यवहारनय इन दो नयों का प्रतिपादन किया गया है। निश्चयनय वस्तु के असंयोगीरूप (भूतार्थ) को और व्यवहार नय संयोगीरूप (अभूतार्थ) को ग्रहण करते हैं। इन नयों के अवान्तर भेदों का निरूपण जैनशास्त्रों में विपुल मात्रा में पाया जाता है। इस प्रकार प्रमाण और नय दोनों से वस्तुपरिच्छिन्न होने से वे न्यायशास्त्र अथवा प्रमाणशास्त्र के प्रतिपाद्य हैं। हमने यहाँ उनका संक्षेप में अनुचिन्तन करने का प्रयास किया है।
१.
प्र०प०, पृ० ६५. प्र० प०, पृ० ६६. लघीय० का० ३०-४६.
३.
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