Book Title: Kesarimalji Surana Abhinandan Granth
Author(s): Nathmal Tatia, Dev Kothari
Publisher: Kesarimalji Surana Abhinandan Granth Prakashan Samiti
View full book text
________________
अनौपचारिक शिक्षा : संकल्पना एवं स्वरूप
२७
.
प्रचलित औपचारिक शिक्षा देश के मात्र ४० प्रतिशत लोगों को साक्षर बना पायी है। देश की ६० प्रतिशत जनता आज भी निरक्षर है तथा अज्ञान के अन्ध महासागर में गोते लगा रही है। देश की प्रचलित शिक्षा प्रणाली देश की आवश्यकताओं के अनुरूप नहीं है तथा भीतर ही भीतर विशृंखलित है। आज ऐसी शिक्षा प्रणाली की आवश्यकता है जो राष्ट्र के विकास की आवश्यकताओं से सम्बन्धित हो।
वर्तमान शिक्षा प्रणाली की सीमाएं १. वर्तमान शिक्षा व्यवस्था का एक मुख्य लक्षण यह है कि यह पूरे विद्यालय समय तक विद्यालय में रहने में समर्थ छात्रों को ही प्रवेश देती है। परिणामतः काम-काजी व्यक्ति को संस्थागत शिक्षा का लाभ नहीं मिल पाता है। पत्राचार एवं रात्रि महाविद्यालय भी मात्र तीसरी श्रेणी की शिक्षा उपलब्ध कराते हैं, साथ ही इस प्रणाली से उत्तीर्ण हुए स्नातकों को समाज में हेय दृष्टि से देखा जाता है। इसी तरह ८ वर्ष से ऊपर की आयु वर्ग के बालकों का बहुत बड़ा प्रतिशत पुन: इस प्रणाली का अंग नहीं बन पाता है। हमारी शिक्षा व्यवस्था बालकों को उनके घरेलू व्यवसाय से हटा लेती है । कुछ वर्षों बाद पुन: कार्यानुभव एवं दस्तकारी जैसे निष्फल उपायों से उन्हें काम की दुनिया से जोड़ने का असफल प्रयास करती है। शिक्षा प्रणाली में अलगाव का तीसरा पक्ष प्राथमिक, माध्यमिक, उच्च माध्यमिक एवं प्रौढ़ शिक्षा जैसे परस्पर भिन्न क्षेत्रों का अप्राकृतिक विभाजन है। जिनके अध्यापक, कर्मचारी आदि सभी भिन्न-भिन्न हैं।
२. भारत में शिक्षा पर प्रतिवर्ष सोलह सौ करोड़ रुपयों से अधिक व्यय किया जाता है। यह व्यय सुरक्षा व्यय के बाद सबसे अधिक है। प्राथमिक शिक्षा में अपव्यय एवं अवरोधन के परिणामस्वरूप ६० प्र.श. धन व्यर्थ ही चला जाता है । शिक्षा में अपव्यय और अवरोधन का मुख्य कारण इसकी उद्देश्यहीनता है । शिक्षणेतर छात्र नौकरी के लिए इधर-उधर भटकता रहता है, कदाचित ही कोई छात्र पुन: अपने पैतृक व्यवसाय में लौटने की बात सोचता हो।
स्वतंत्र भारत की नव निर्वाचित सरकार ने विकास कार्यक्रमों को सामुदायिक विकास और पंचायत राज की पद्धति से जोड़ने का संकल्प किया था और विकास कार्यक्रम में जनता को भागीदारी देना शैक्षिक प्रक्रिया माना था। फलतः सामुदायिक विकास कार्यक्रम के अन्तर्गत समाज शिक्षा कार्यक्रम तैयार किया गया किन्तु द्वितीय पंचवर्षीय योजना के बाद ही समग्र विकास के स्थान पर संकुचित क्षेत्र के उत्पादन कार्यों को महत्त्व दिया जाने लगा तथा सामुदायिक विकास कार्यक्रम तथा पंचायती राज और समाज शिक्षा का महत्त्व कम हो गया । समाज शिक्षा कार्यकर्ताओं के पद समाप्त कर दिये गये और ग्रामसेवकों के पद कृषि कार्यकर्ता के पदों में रूपान्तरित कर दिये गये । जबकि उस समय का एक अत्यन्त सफल कार्यक्रम ग्राम शिक्षा की योजना थी। तदुपरान्त ग्राम शिक्षा संस्थान (रूरल इन्स्टीट्यूट) तथा कृषि महाविद्यालय खोले गये और उनमें सहकारी प्रबन्ध, ग्रामीण सेवाएँ, ग्रामीण स्वच्छता प्रणाली, ग्रामीण अभियान्त्रिकी, ग्रामोद्योग जैसे पाठ्यक्रम सम्मिलित किये गये तथा कृषि महाविद्यालयों को अनुसंधान एवं प्रसार कार्यक्रम सौंपे गये। मगर भारतीय शिक्षा व्यवस्था में इन संस्थाओं की कहानी दुःखान्त बनकर रह गयी है। ये संस्थाएँ अपनी विशेषताओं को बनाये नहीं रख सकी। ग्रामीण शिक्षा संस्थान सामान्य विश्वविद्यालयों से आबद्ध हो गये और कृषि महाविद्यालय भी (कुछ अपवादों को छोड़कर) कृषि स्नातक (सरकारी नौकरी हेतु ) तैयार करने में जुट गये । अपार धन खर्च करने पर भी कोई लाभ नहीं हुआ और यह कार्यक्रम परम्परित शिक्षा की चपेट में आ गया। समाज शिक्षा बोर्ड, कोयला खान कर्मचारी संगठन, अखिल भारतीय श्रमिक शिक्षा समिति तथा कृषकों के लिए क्रियात्मक साक्षरता कार्यक्रम (१९६७-६८) तथा नेहरू केन्द्र प्रारम्भ किये गये किन्तु परिणाम वही ढाक के पात तीन।
हमारे देश का सामान्य शिक्षार्थी अपने दैनिक जीवन की समस्याओं का हल निकाल पाने में समर्थ हो सके और जिसे वह सहज ही जीवन जीते हुए स्वीकार कर सके, ऐसी शिक्षा प्रणाली ही सच्चे माने में उपयोगी कही . जा सकती है। देश का बहुसंख्यक वर्ग औपचारिक शिक्षा केन्द्रों में नहीं समा सकता और न ही यह वर्ग अपनी
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org