Book Title: Kesarimalji Surana Abhinandan Granth
Author(s): Nathmal Tatia, Dev Kothari
Publisher: Kesarimalji Surana Abhinandan Granth Prakashan Samiti
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कर्मयोगी श्री केसरीमलजी सुराणा अभिनन्दन ग्रन्थ : तृतीय खण्ड
बच्चों की उम्र तथा उनकी शारीरिक, मानसिक एवं भावनात्मक आवश्यकताओं के अनुरूप होना चाहिए। यूरोप के अनेक देशों में इस ओर अनेक प्रयोग हुए हैं। हमारे यहाँ भी विशिष्ट समारोहों एवं सांस्कृतिक कार्यक्रमों के लिए इस प्रकार के नृत्यों का समावेश प्रारम्भ होने लगा है। पिछले दिनों एक स्कूल में मैंने छोटे-छोटे बच्चों का एक सांस्कृतिक कार्यक्रम देखा जिसमें उन्होंने "Here we dancing dancing" गीत पर बड़ा ही मनोहारी नृत्य प्रस्तुत किया था। ये बच्चे आठ-आठ, दस-दस वर्ष से अधिक बड़े नहीं थे।
इन सामुदायिक नृत्यों के साथ व्यायाम का पुट अत्यन्त आवश्यक है। इससे एक ओर जहां बच्चों के शारीरिक अवयव पुष्ट होंगे वहाँ उन्हें व्यर्थ की उछल-कूद से मुक्त होकर तालबद्ध संगीत में रहकर सार्थक क्रियाएँ करने में आनन्द की अनुभूति भी होगी। इसके लिए शिक्षक के लिए यह आवश्यक है कि वह इन सारी चीजों से भली प्रकार परिचित हो अन्यथा गलत नृत्य-संगीत और पदचापों से बच्चों का अंग-सौष्ठव बिगड़ जायगा । उनकी चाल-ढाल ठीक नहीं होने से उनमें गलत आदतों का समावेश होने लगेगा और उनकी भावनात्मक पृष्ठभूमि, कल्पना और रंगीनियों के शतदल की बजाय भौंडी और कंटीली झाड़ियों की तरह उलझन भरी नजर आने लगेगी।
हमारे देश के विभिन्न राज्यों में प्रचलित ऐसे अनेक सामूहिक नृत्य हैं जो जनशिक्षण की दिशा में सहायक हो सकते हैं। इनमें राजस्थान का गेर, घूमर; गुजरात का गरबा, रास; उत्तर प्रदेश का कजरी; आन्ध्र का बणजारा; मणिपुर का लाहिरोबा तथा आदिवासियों के नृत्य मुख्य हैं। राजस्थान का घूमर नृत्य किसी समय राजघरानों की देहलीज तक सीमित था परन्तु अब यही नृत्य स्थान-स्थान पर सामूहिक रूप से मनाये जाने वाले गणतन्त्र दिवस की शोभा बना हुआ है। दिल्ली में हजारों-हजार नागरिकों के सन्मुख भी इस नृत्य ने अपनी विशिष्टताओं द्वारा राष्ट्र के रंग में कई अनोखे रंग भरे हैं। ये नृत्य जीवन की विषमताओं एवं संकीर्णताओं को दूरकर जनजीवन में स्वस्थ भावनाओं की वृष्टि करते हैं। शिक्षात्मक कावड़पाट
कावड़ लकड़ी के विविध पाटों का बना एक चित्र-मन्दिर होता है। ये पाट एक दूसरे से जुड़े रहते हैं जो आवश्यकतानुसार खोल दिये जाते हैं अन्यथा पाटों को बन्द करने से एक छोटा सा पिटारा बन जाता है। इन पाटों के दोनों ओर विविध धार्मिक एवं प्रिक्षात्मक जीवनोपयोगी चित्र चित्रित होते हैं। कावडरक्षक कावड़िया भाट इसे अपनी बगल में दबाये एक गाँव से दूसरे गाँव जाता है और एक-एक पाट को खोलता हुआ तत्सम्बन्धी चित्र को बड़ी सुन्दर लयकारों में विवेचित करता है और बदले में धान-चून प्राप्त कर अपनी गृहस्थी चलाता है। अब तक इस कावड़ का केवल यही उपयोग था परन्तु अब बाल्य एवं प्रौढ़ शिक्षण में इसका उपयोग बड़ा लाभकारी सिद्ध हुआ है।
इसके अनुसार प्रारम्भ में किसी विषय अथवा कथा-कहानी को ले लिया जाता है। उसके बाद उस कहानी के आधार पर कावड़पाट पर अच्छे खूबसूरत चित्र कोर लिये जाते हैं। आवश्यकता होने पर प्रत्येक चित्र के नीचे ही उसका संक्षिप्त विवरण भी लिखवा लिया जाता है और तब एक-एक पाट का समूह-वाचन दे दिया जाता है। इससे प्रत्येक विद्यार्थी को समझने-सुनने में बड़ी आसानी रहती है। साथ ही शिक्षक जो कुछ कहना चाहता है, वह, लड़के चित्रों के माध्यम से जब उसका साक्षात्कार कर पाते हैं तो उसका, उनके मन-मस्तिष्क में स्थाई रूप से असर बैठ जाता है और वह चीज जल्दी ही उनके समझ में आ जाती है। इस प्रकार एक कावड़ द्वारा कई कविताएँ तथा कहानियाँ पढ़ाई जा सकती हैं। इसका पठन-पाठन सरल तथा संवादमूलक भी हो सकता है। नाटक तथा काव्य खण्ड भी कावड़ के माध्यम से रोचक तथा सरलतापूर्वक पढ़ाने जैसे बनाये जा सकते हैं। पड़ का उपयोगी पक्ष
कावड़ की ही तरह एक पड़-रूप और प्रचलित है जिसके माध्यम से भी शिक्षण का अच्छा प्रचार-प्रसार किया जा सकता है । इसके जरिये कावड़ से भी अधिक व्यक्ति एक साथ शिक्षित किये जा सकते हैं। यह पड़ एक लम्बा कपड़ा होता है, जिस पर किसी घटना-चरित्र से सम्बन्धित चित्र कोरे हुए होते हैं। पड़ वाँचने वाला भोपा दो
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