Book Title: Kesarimalji Surana Abhinandan Granth
Author(s): Nathmal Tatia, Dev Kothari
Publisher: Kesarimalji Surana Abhinandan Granth Prakashan Samiti
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कर्मयोगी श्री केसरीमलजी सुराणा अभिनन्दन ग्रन्थ : तृतीय खण्ड
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गाथाएँ, ठगी की कहानियाँ आदि छापकर जैसे पिछले दरवाजे से इस अपराध जगत् में स्थान बनाने का प्रयत्न कर रही हैं। एक ओर कुछ वर्षों में ज्ञानोदय, माध्यम कहानी, स्टेट्स बेस्ट जैसी स्तरीय पत्रिकाएँ बन्द हुई है तो दूसरी ओर इन पत्रिकाओं ने खूब कमाई कर अपना विस्तार किया है। यही हाल फिल्मी पत्रिकाओं का भी है, इनमें फिल्मों की स्वस्थ आलोचना और फिल्म कला पर गम्भीर लेखों के बजाय फिल्मी सितारों के कपड़ों के नीचे और शयन कक्षों के भीतर झांकने का सीधा प्रयत्न होता है । यही हाल राजनीतिक पत्रिकाओं का भी है, किस मन्त्री या उसके बेटे ने किस लड़की के साथ कब किस तरह का व्यभिचार किया, इसका सचित्र, विस्तृत विवरण ही इन पत्रिकाओं का एकमात्र विषय रह गया है।
आखिर यह सम्पूर्ण परिदृश्य हमें किन निष्कर्षों पर पहुंचाता है ? हमारे सारे के सारे संचार साधन किस दिशा में बढ़ रहे हैं ? क्या एक सद्यः स्वाधीन, विकासशील देश के संचार माध्यमों की यह भूमिका स्वस्थ और सन्तोषप्रद कही जा सकती है ? क्या इनसे हमारे नागरिकों को मानसिकता की सही दिशा मिल रही है ? क्या इनके इस तरह के अस्तित्व से इनकी अस्तित्वहीनता ही बेहतर नहीं होगी?
__ मेरी स्पष्ट मान्यता है कि रेडियो, टेलीविजन, सिनेमा, समाचार पत्र, पत्रिकाएँ और पुस्तकें सभी गलत हाथों और निश्चित स्वार्थों के घेरे में बन्द हैं। सरकार ने भी अपने दायित्व का निर्वाह करने के बजाय उसे अकर्मण्य अफसरशाही के पास गिरवी रख दिया है । सरकार से बाहर के जिन लोगों ने इन माध्यमों पर कब्जा कर रखा है उनके लिये तो किताब और शराब की बोतल के व्यवसाय में जैसे कोई फर्क ही नहीं है। मुनाफा ही तो कमाना है। शराब नहीं बेची, किताब बेच ली । परिणाम यह हुआ है कि जहाँ इन माध्यमों को अर्थ देने का प्रयत्न किया गया वहाँ ये रुचि-हीन, नीरस और उबाऊ हो जाने के कारण जरा-सा भी प्रभाव उत्पन्न नहीं कर पाये और जहाँ इन्हें खुला छोड़ा गया वहाँ मुनाफाखोरों के हाथ में पड़कर अवांछित दिशा की ओर मुड़ गये।
आज हमारे समस्त संचार साधन किसी स्वस्थ भूमिका का निर्वाह करने की बजाय चतुर्दिक अनैतिकता का जहर फैला रहे हैं। कागज की भीषण कमी के कारण स्कूली पाठ्य पुस्तकें तक नहीं छप पा रही हैं, परन्तु अपराध पत्रिकाओं, रोमाण्टिक उपन्यासों की बाढ़ आई हुई है। देश में सिनेमाघरों की कमी के कारण अच्छी फिल्मों को प्रदर्शन का अवसर नहीं मिल पा रहा है। वे डिब्बे में ही पड़ी-पड़ी सड़ रही हैं परन्तु अभूतपूर्व हिंसा वाली फिल्म एक ही थियेटर में तीन साल चल चुकी है। रेडियो, टी० बी० के अपने कार्यक्रम फिल्मी रचनाओं के हाथों मार खा रहे है। यह सब यही सिद्ध करता है कि अर्थशास्त्र का सुपरिचित नियम- 'बुरी मुद्रा अच्छी मुद्रा को प्रचलन से हटा देती है। यहाँ भी लागू हो रहा है।
इसका उपचार क्या है ?
सरकार यदि अपने नागरिकों के हित में मिलावटी खाद्य पदार्थों पर रोक लगा सकती है, उनके व्यापारियों को दण्डित कर सकती है, जन स्वास्थ्य के हित में शराबबन्दी की जा सकती है तो जन-भावनाओं को दूषित करने वाले साहित्य और फिल्मों पर रोक क्यों नहीं लगाई जा सकती है ? आखिर प्रजातन्त्र और अभिव्यक्ति की स्वाधीनता का अर्थ यह तो नहीं है कि कुछेक स्वार्थी लोगों को पूरे देश की मानसिकता को विकृत करने की छूट दे दी जाय ? निश्चय ही क्या अच्छा है और क्या बुरा, इसका निर्णय समझदार लोगों द्वारा करवाना होगा, वरना अफसरशाही जिस अविवेकपूर्ण ढंग से इस दायित्व का निर्वाह करती है उससे कोई लाभ नहीं होने वाला है, हानि भले ही हो । इस तरह के निर्णय के लिये अधिकारियों का चयन बहुत सूझ-बूझपूर्ण होना चाहिये, इस कार्य के लिये इन माध्यमों से सम्बद्ध लोगों को भी आगे आना होगा और स्तरीय रचनाओं के उदाहरण उपस्थित करने होंगे। पाठकों, दर्शकों से भी अनुचित, गलीज और हानिप्रद रचनाओं के विरुद्ध सक्रिय विरोध की अपेक्षा होगी।
यह तो हुई नकारात्मक भूमिका, सकारात्मक दृष्टि से आकाशवाणी और टेलीविजन के कार्यक्रमों का स्तर ऊँचा उठाया जाना प्रथम आवश्यकता होगी। कलात्मक और तकनीकी दृष्टि से ये माध्यम बहुत पिछड़े हुए हैं, यह
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