________________ (31) श्री कल्पसूत्र-बालावबोध पुरिम-चरिमाण कप्पो, मंगलं वद्धमाण जिण तित्थं। इह परिगहिया जिणहरा, थेरावली चरित्तम्मि।।१।। प्रथम श्री ऋषभदेव तीर्थंकर और अन्तिम श्री महावीरस्वामी तीर्थंकर हुए। इनमें श्री वर्द्धमान जिनेश्वर के तीर्थ में मांगलिक निमित्त यह कल्पसूत्र है। इसमें तीन अधिकार कहे हैं। प्रथम जिनावली याने श्री महावीर भगवान से ले कर पश्चानुपूर्वी से श्री जिनेश्वरों के चरित्र कहे जायेंगे। दूसरा स्थविरावली याने स्थविरों के चरित्र कहे जायेंगे। तीसरा चौसठ आलापों से अट्ठाईस प्रकार की साधु-समाचारी कही जायेगी। इसमें प्रथम श्री जिनेश्वरों के चरित्रों में अन्तिम श्री महावीरस्वामी शासन के अधिकारी हैं। इसलिए उनका चरित्र पहले कहा जायेगा। // इति कल्पसूत्र-पीठिका।। . ___卐卐卐 अब इस कल्पसूत्र का अर्थ अत्यन्त गंभीर है। एक एक अक्षर का अनन्त अर्थ है। वह सब अर्थ कहने में मैं समर्थ नहीं हूँ, फिर भी जैसे पूर्वाचार्यों ने किया है। वैसे ही मैं भी उन महापुरुषों के ग्रंथों का अनुसरण कर के स्वल्प अर्थ करता हूँ। यद्यपि यह कल्पसूत्र स्वयं ही सब विघ्नों की उपशान्ति के लिए महामांगलिकरूप है, तो भी शिष्य की मंगलबुद्धि होने के कारण जैसे लौकिक कामों के प्रारंभ में प्रथम श्री देवगुरु का स्मरण कर के फिर उस कार्य का प्रारंभ करते हैं; वैसे ही इस कल्पसूत्र की रचनारूप कार्य के आद्य में भी सब मंगलों में महामंगलकारी, चौदह पूर्वो के सारभूत पंच परमेष्ठी मंत्र का उच्चारण किया जाता है; सो लिखते हैं। परमेष्ठी नमस्कार और कल्पसूत्र का प्रारंभ 'नमो अरिहंताणं' - नमस्कार हो विहरमान श्री अरिहन्त भगवन्तों को। 'नमो सिद्धाणं' - नमस्कार हो जिन्होंने आठ कर्मों का क्षय कर के मोक्ष प्राप्त किया है। ऐसे सब सिद्ध भगवन्तों को। 'नमो आयरियाणं' - नमस्कार