________________ श्री कल्पसूत्र-बालावबोध (179) मानें तो प्रतिदिन नौ हजार मण सुवर्णमुद्राएँ दान में दी जाती हैं। उनकी आज के समय के अनुसार एक गाड़ी में चालीस मण भार डालने से दो सौ पच्चीस गाड़ियाँ होती हैं। ये सुवर्णमुद्राएँ शक्रेन्द्र के आदेश से वैश्रमण देव देवमाया से आठ समय में बना कर तीर्थंकर के घर में भरता है। यह दान देने का अतिशय है। __ तीर्थंकर के हाथ में शक्रेन्द्र ऐसी स्थिति करता है कि दान देते हुए तीर्थंकर का हाथ थके नहीं। ईशानेन्द्र रत्नजड़ित सुवर्णछड़ी हाथ में ले कर खड़ा होता है। वह चौसठ इन्द्र छोड़ कर अन्य सामान्य देवों को दान लेने से रोकता है तथा जिस मनुष्य के ललाट में जैसी प्राप्ति होती है, वैसा उसके मुख से वचन निकलवाता है। चमरेन्द्र और बलेन्द्र यदि तीर्थंकर की मुट्ठी में अधिक द्रव्य आया हो, तो वापस निकाल देते हैं और कम द्रव्य आया हो, तो उसे पूर्ण करते हैं। याचना करने वाला अपनी प्राप्ति के अनुसार पाता है। भवनपति देव भरतक्षेत्र के मनुष्यों को दान लेने के लिए बुला लाते हैं और वाणव्यन्तर देव मनुष्यों को पुनः उनके स्थानक पर पहुँचाते हैं। ज्योतिषी देव विद्याधरों को दान लेने की खबर पहुँचाते हैं। ये सब तीर्थंकर के अतिशय जानना। इस प्रस्ताव में तीर्थंकर के पिता तीन विशाल शालाएँ बनवाते हैं। यहाँ भगवान के माता-पिता देवलोक गये हैं, इसलिए उनके बड़े भाई नन्दीवर्द्धन तीन शालाएँ बनवाते हैं। पहली शाला में भरतक्षेत्र के मनुष्यों को अन्नपानादिक, दूसरी शाला में वस्त्र और तीसरी शाला में आभूषण दिये जाते हैं। तीर्थकर के हाथ के दान की महिमा कहते हैं दान के प्रभाव से चौसठ इन्द्रों में बारह वर्ष तक आपस में क्लेश नहीं होता। राजा अथवा चक्रवर्तीप्रमुख तीर्थंकर का दान ले कर वे सुवर्णमुद्राएँ भंडार में रखें, तो बारह वर्ष तक उनका भंडार अखूट रहता है। सेठसेनापति आदि दान लेते हैं, तो उसके प्रभाव से बारह वर्ष तक उनकी यशकीर्ति बहुत बढ़ती है। रोगी पुरुष को दान मिले, तो उसके प्रभाव से