________________ श्री कल्पसूत्र-बालावबोध (255) परन्तु 'वा' शब्द से मुक्ति के अर्थी जो जीव हैं, उन्हें मोक्ष के कारण के लिए भी क्रियानुष्ठान करना चाहिये। याने कि यह होम ही सर्व काल नहीं करना, पर मोक्ष का भी उपाय करना। तथा ब्रह्म दो हैं- परमपरं। उनमें एक परब्रह्म है और दूसरा अपरब्रह्म। 'तत्र परं सत्यं ज्ञानमनन्तं ब्रह्म'- वहाँ परमब्रह्म तो सत्यरूप, ज्ञान अनन्तरूप, नाशरहित है। याने कि अनन्तज्ञानमय ब्रह्म परब्रह्म है। इस श्रुति से मोक्ष है, ऐसा जानना। यह अर्थ सुन कर निःसन्देह हो कर श्री प्रभास ने भी दीक्षा ली। गणधरस्थापना और चन्दनबाला की दीक्षा श्री गौतमस्वामी से ले कर प्रभासजी पर्यन्त कुल ग्यारह विद्वान भगवान के पास आये। भगवान ने उन सबके मन में जो जो संशय थे, वे दूर किये। इससे उन ग्यारह जनों ने अपने चवालीस सौ शिष्यों सहित भगवान के पास दीक्षा ली। भगवान ने सबको त्रिपदी प्रदान की। वह इस तरह कि प्रथम 'उप्पन्नेइ वा' याने सब उत्पन्न होता है, ऐसा कहा। तब शंका उत्पन्न होती है कि यदि सब उत्पन्न होता है, तो वह संसार में कैसे समा सकता है? इसलिए भगवान ने दूसरा पद कहा कि 'विगमेइ वा'। याने नष्ट होता है। इस पद में भी यह शंका उत्पन्न होती है कि यदि विनाश होता जायेगा, तो सारा संसार शन्य हो जायेगा। यह सोच कर तीसरा पद कहा कि- 'धुवेइ वा। याने इस संसार की स्थिति निश्चल है। तब यह जान लिया गया कि उत्पन्न होता है, नष्ट होता है और रहने वाला है, वह रहता भी है। संसार की ऐसी स्थिति सदा सर्वदा तीनों कालों में चलती रही है। यह त्रिपदी प्रभु के पास से प्राप्त कर उन ग्यारहों गणधरों ने दो घड़ी में याने एक मुहूर्त में द्वादशांगी की रचना की। उस अवसर पर इन्द्र महाराज स्वयं रत्नथाल में वासक्षेप ले कर हाजिर हुए। भगवान ने उसमें से मुट्ठी भर कर ग्यारहों गणधरों के सिर पर अनुक्रम से वासक्षेप किया। इस तरह तीर्थ की स्थापना हुई। देवों ने देवदुन्दुभी बजायी और जय जय शब्दोच्चार किया। फिर