Book Title: Kalpsutra Balavbodh
Author(s): Yatindravijay, Jayantsensuri
Publisher: Raj Rajendra Prakashan Trust

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Page 427
________________ (394) श्री कल्पसूत्र-बालावबोध यह सुन कर गुरु ने भी भावी लाभ जान कर उसे दीक्षा दे कर उसकी इच्छा के अनुसार भोजन कराया और कहा कि पूर्वकृत पुण्य के उदय से तुम्हें चारित्र मिला है, इसलिए शुद्ध भाव रखना। इतने में उसे वमन हुआ। तब सब साधु उसकी वैयावच्च करने लगे। इससे भिक्षु ने चारित्र की अनुमोदना की और मर कर उज्जयिनी नगरी में श्रेणिक राजा के पाट पर कोणिक राजा, उसके पाट पर उदायिन राजा, उसके पाट पर नापित नन्द नामक नौ राजाओं के पाट हुए। तेरहवें पाट पर मौर्य चन्द्रगुप्त, चौदहवें पाट पर बिन्दुसार, पन्द्रहवें पाट पर अशोकश्री और सोलहवें पाट पर अशोकश्री का पुत्र कुणाल हुआ। उस कुणाल का पुत्र संप्रति नामक राजा हुआ। जन्मते ही उसके दादा ने उसे राज्य दिया। वह अनुक्रम से तीन खंड पृथ्वी का राज्य भोगने वाला हुआ। एक दिन संप्रति राजा झरोखे में बैठे थे। उस समय उन्होंने रथयात्रा में आर्य सुहस्तिसूरि को जाते देखा। इससे उन्हें जातिस्मरण ज्ञान हुआ और पूर्व में भिक्षुक के भव में स्वयं साधु हुए थे, वह सब वृत्तान्त दिखाई दिया। तब झरोखे से नीचे उतर कर गुरु के पाँव पड़ कर पूछा कि हे स्वामिन! अव्यक्त सामायिक का फल क्या है? तब गुरु ने कहा कि उससे राज्यादि की प्राप्ति होती है। यह सुन कर संप्रति राजा ने विशेष दृढ़ हो कर गुरु से पूछा कि हे स्वामिन्! क्या आप मुझे पहचानते हैं? गुरु ने उपयोग दे कर कहा कि तुम भिक्षुक के भव में हमारे शिष्य थे। अब तुम्हें राज्य मिला है, इसलिए धर्म की वृद्धि करो। ___ गुरु का यह वचन सुन कर राजा ने श्रावक धर्म स्वीकार किया। फिर सवा लाख नये जिनमन्दिर बनवाये, सवा करोड़ जिनबिंबों की प्रतिष्ठा करवायी, तेरह हजार जीर्णोद्धार कराये, पचानबे हजार पीतल की प्रतिमाएँ बनवायीं, सात सौ दानशालाएँ स्थापित की, सारी धरती देवालयों से शोभायमान की, लोगों को करमुक्त किया और साधुवेश पहना कर अपने सुभटों को अनार्य देशों में भेज कर वहाँ के लोगों को समझा कर जैन साधुओं का अनार्य देशों में विहार करवाया।

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