Book Title: Kalpsutra Balavbodh
Author(s): Yatindravijay, Jayantsensuri
Publisher: Raj Rajendra Prakashan Trust

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Page 430
________________ श्री कल्पसूत्र-बालावबोध (397) में सचित्त-अचित्त जो कुछ मिले, उसे ले लेना। फिर धनगिरि गोचरी घूमते .घूमते सुनन्दा के घर गये। सुनन्दा ने कहा कि तुम्हारे इस पुत्र ने तो मुझे उल्टे सन्ताप कर दिया है, इसलिए इसे ले जाइये। तब धनगिरि ने कहा कि अब तो तू दे रही है, पर बाद में दुःख करेगी। सुनन्दा ने कहा कि मैं दुःख नहीं करूँगी। आप इसे सुख से ले जाइये। तब धनगिरिजी ने अनेक स्त्रियाँ और अन्य लोगों की साक्षी से पुत्र को ले कर झोली में डाला और उपाश्रय में आये। गुरु ने झोली उठायी, तब उसमें अधिक भार लगा। तब उन्होंने कहा कि क्या यह वज्र है? यह कह कर उन्होंने झोली खोली तो अन्दर बालक दिखाई दिया। उन्होंने उसका नाम वज्र रखा। उपाश्रय में आने के बाद बालक ने रुदन करना बन्द कर दिया। गुरु ने शय्यातरनी श्राविका को वह बालक सौंपा। उसने उसे पलने में रखा। वह जब छह महीने का हुआ, तब वहाँ शाला में जो साध्वियों पढ़ा करती थीं, उनके वचन सुन कर पालने में लेटे लेटे उसने ग्यारह अंग पढ़ लिये। अनुक्रम से वह तीन वर्ष का हुआ, तब सुनन्दा ने कहा कि मैं अपना पुत्र वापस लूँगी। इस पर संघ ने कहा कि यह गुरु का माल है, इसलिए हम से दिया नहीं जा सकता। फिर वह राजदरबार में गयी। संघ की विनती से वहाँ गुरु भी आये। राजा ने न्याय किया कि यह बालक जिसके उपकरण ले, उसका ही पुत्र जानना। तब माता ने लड्डु तथा खिलौनेप्रमुख बालक को दिखाये, पर बालक ने उनकी तरफ देखा तक नहीं। फिर गुरु ने बालक से कहा कि यह ओघा (रजोहरण) तुझे चाहिये तो ले ले। तब बालक ने ओघा ग्रहण किया और वह नाचने-कूदने लगा। फिर राजा ने कहा कि न्याय हो चुका। यह कह कर उसने बालक गुरु को सौंप दिया। वह आठ वर्ष का हुआ, तब उसने दीक्षा ली। उस समय सुनन्दा ने कहा कि मेरा पुत्र भी तुमने ले लिया है, तो अब मुझे भी दीक्षा दे दो। फिर गुरु ने सुनन्दा को भी दीक्षा दी। एक दिन उज्जयिनी के मार्ग में वज्रऋषि का पूर्वभव का मित्र कोई देव मनुष्य का रूप बना कर वज्रऋषि की परीक्षा लेने के लिए उन्हें कम्हड़े

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