________________ (416) श्री कल्पसूत्र-बालावबोध सिद्धसेन दिवाकर ने विक्रमादित्य राजा को प्रतिबोध दे कर श्री शत्रुजय का संघ निकाला। उस संघ में एक सौ सत्तर सुवर्णमंदिर थे। उन्होंने शजय का उद्धार कराया। श्री सिद्धसेनदिवाकरसूरिजी की सहायता से विक्रमादित्य राजा ने अपने नाम का संवत् चलाया। इसके पूर्व श्री वीर भगवान का संवत् था। ये वृद्धवादी और सिद्धसेनदिवाकर दोनों स्थविर हुए। ___इसी तरह कालिकाचार्य तीन हुए हैं। इनमें से एक तो श्री वीर भगवान से तीन सौ छिहत्तर (३७६)वें वर्ष में हुए हैं। उन्होंने श्री पन्नवणा सूत्र बनाया है और सौधर्मेन्द्र को निगोद का विचार कहा है। कोई कोई आचार्य कहते हैं कि ये कालिकाचार्य श्री वीर निर्वाण से तीन सौ बीसवें वर्ष में हुए हैं, कोई कहते हैं कि तीन सौ पच्चीसवें वर्ष में हुए हैं। कोई ऐसा भी कहते हैं कि चौथ की संवत्सरी स्थापने वाले ये ही आचार्य हैं। इसमें सच-झूठ केवली भगवान जानें। ___ दूसरे कालिकाचार्य पूर्व में जो कालिकाचार्य कहे हैं, उनके मामा हुए। तीसरे कालिकाचार्य श्री वीरनिर्वाण के बाद नौ सौ तिरानबे (९९३)वें वर्ष में और विक्रम संवत् ५२३वें वर्ष में जिन्होंने चौथ की संवत्सरी की, वे हैं। इस विषय में कोईकोई चूर्णीकार लिखते हैं कि कालिकाचार्य के कई शिष्यों ने चौथ की संवत्सरी मान्य की और श्री सुधर्मस्वामी के तीन शिष्यों ने पंचमी की संवत्सरी मानी। तत्त्व केवली जानें। इस विवाद में कुछ सार नहीं है। तीन हरिभद्रसूरि का संक्षिप्त वृत्तान्त हरिभद्रसूरि भी तीन हुए हैं। इनमें एक तो हरिभद्र नामक ब्राह्मण था। उसने व्याकरणादि पढ़ने के बाद यह प्रतिज्ञा की थी कि जिसका अर्थ मैं समझ न सकूँ, उस पद का अर्थ जो बता देगा, उसका मैं शिष्य हो जाऊँगा। एक दिन याकिनी महत्तरा साध्वी एक गाथा पढ़ रही थी कि- 'चक्कि दुगं हरिपणगं, पणगं चक्कीण केसवो चक्की.।' इस गाथा का अर्थ हरिभद्र से नहीं लग सका, तब उसने साध्वी से पूछा। साध्वी ने कहा कि यह हमारा अधिकार नहीं है, इसलिए गुरु से पूछिये। गुरु के पास गाथा का अर्थ सुन कर प्रतिज्ञापालन के लिए दीक्षा ली। फिर इन्होंने आचार्य पद प्राप्त किया। इन्होंने विक्रम संवत् 585 में आवश्यकनियुक्ति प्रमुख ग्रंथों की टीकाएँ लिखीं। ___ इनके दो शिष्य एक हंस और दूसरा परमहंस ये दोनों बौद्धों के पास पढ़ने गये। बौद्धों ने जाना कि ये दोनों जैनी जैसे दीखते हैं। इससे परीक्षा करने के लिए