________________ (428) श्री कल्पसूत्र-बालावबोध साधु अनशन करने की चाहना रखता हो और आहार-पानी त्याग कर के मृत्यु को नहीं चाहते हुए पादोपगमन अनशनप्रमुख करता हो, तो उसे भी आचार्यादिक से पूछे बिना अनशन नहीं करना चाहिये। इसी प्रकार आहार करना, मात्रा-स्थंडिल (लघुशंका-दीर्घशंका) जाना, .. सज्झाय-ध्यान करना, धर्मजागरण करना, काउस्सग्गप्रमुख करना ये सब आचार्यादिक से पूछ कर ही करना। पूछे बिना कोई भी काम करना कल्पता नहीं है। यह आचार्यादिक से पूछ कर ही प्रत्येक कार्य करने से संबंधित सतरहवीं समाचारी जानना। 18. वर्षाकाल में रहे हुए साधुओं को अपनी उपधि धूप में तपाना हो; तो स्वयं वहाँ ध्यान रखना, पास में बैठना, पर उपधि को धूप में रख कर गोचरी जाना नहीं, आहार करना नहीं, चैत्य जाना नहीं, स्थंडिल जाना नहीं, सज्झाय करना नहीं और काउस्सग्ग करना नहीं। इतने काम करने हों, तो दूसरे साधु से कहना कि हे आर्य! मुझे गोचरीप्रमुख अमुक कार्य करना है, इसलिए तुम हमारी उपधि की निगाह रखो, तो मैं गोचरीप्रमुख कार्य करूँ। यदि वह साधु कहे कि मैं निगाह रखूगा, तो गोचरीप्रमुखं कार्य करना कल्पता है, पर यदि वह कहे कि मुझे अन्य काम है, इसलिए बैठ नहीं सगा, तो पूर्वोक्त गोचरीप्रमुख कार्य करना कल्पता नहीं है। यह उपधि धूप में तपाने से संबंधित अठारहवीं समाचारी जानना। ' 19. बरसात में रहे हुए साधु-साध्वी को एक हाथ ऊँची, शब्द न करने वाली, न हिलने-डुलने वाली (अडिग) और फिरती काठी बाँधी हुई ऐसी शय्या के बिना रहना कल्पता नहीं है। यदि ऐसे शय्यासन को बिना रहे, तो दोष लगता है। यह कर्मबंध का कारण है। इसी प्रकार उस शय्यासन को बार बार पडिलेहना, धूप में रखना और पूंजते रहना चाहिये। यदि ऐसा न करे तो चारित्र पालना दुर्लभ होगा। यह शय्यासन ग्रहण करने से संबंधित उन्नीसवीं समाचार जानना। 20. चौमासे में रहे हुए साधु-साध्वी को स्थंडिल-मात्रा के तीन स्थान रखने चाहिये और उन स्थानों की बार बार पडिलेहना करनी चाहिये, पर