________________ श्री कल्पसूत्र-बालावबोध (429) सर्दी और गर्मी की तरह चौमासे में नहीं रहना चाहिये। शिष्य पूछता है कि सर्दी-गर्मी के दिनों की तरह चौमासे में क्यों नहीं रहना चाहिये? गुरु उत्तर देते हैं कि प्रायः चौमासे में हरी-नीली वनस्पतिप्रमुख जीव बहुत उत्पन्न हुए होते हैं, इसलिए चौमासे में अलग प्रकार कहा। यह स्थंडिल-मात्रा की जगह रखने से संबधित बीसवीं समाचारी जानना। 21. चौमासे में साधु-साध्वी को एक स्थंडिल (जंगल जाने) का, दूसरा मात्रा (पेशाब करने) का और तीसरा खेल (खंखार थूकना) प्रमुख का ऐसे तीन मात्रक (पात्र) रखने चाहिये। यह तीन मात्रक रखने से संबंधित इक्कीसवीं समाचारी जानना। 22. पर्युषण कर के रहे हुए साधु-साध्वी को गाय के बाल जितने सूक्ष्म बाल भी अपने सिर पर नहीं रखने चाहिये, क्योंकि पंचमी की रात को यदि मस्तक पर केश रह जायें, तो दंड आता है। यदि कोई अशक्त, ग्लान (रुग्ण) और टाटिया हो, तो उसे छुरी (उस्तरे) से मुंडन करा लेना चाहिये या कतरनी (कैंची) से बाल कटवा लेने चाहिये। ___ उत्सर्ग से तो लोच ही करना चाहिये। यदि कतरने हों, तो पुनः पन्द्रहपन्द्रह दिन में कतरना चाहिये और गुरुमासिक दंड लेना चाहिये तथा हर महीने क्षुरमुंड करना चाहिये और लघुमासिक प्रायश्चित्त लेना चाहिये। युवान साधु को हर चार महीने में लोच करना चाहिये। स्थविर और जर्जर साधु को आँखों का तेज रखने के लिए छह महीने में एक बार लोच करना चाहिये अथवा स्थविर (अतिवृद्ध) के सिर पर बाल कम आते हों तो बारह महीने में एक बार लोच करना चाहिये। यह लोच करने से संबंधित बाईसवीं समाचारी जानना। - 23. बरसात में रहे हुए साधु-साध्वी को संवत्सरी होने के बाद पहले हुए कलह को खमाना चाहिये, पर क्रोध नहीं रखना चाहिये। यदि कोई निग्रंथ या निर्ग्रथिनी पर्युषण बीतने के बाद क्रोध करे, क्रोध रखे, तो वह अनाचारी है, ऐसा जानना। उनसे अन्य साधु कहे कि हे आर्य! तुम क्रोध रखते हो यह ठीक नहीं है। ऐसा कहने से नहीं समझे और पर्युषण बीतने के बाद कषाय