________________ श्री कल्पसूत्र-बालावबोध (439) ऐसे अंधकार में साँप को आते तुमने कैसे देखा? मृगावती ने कहा कि आपके प्रताप .से। तब चन्दना ने कहा कि क्या तुम्हें केवलज्ञान उत्पन्न हुआ है? मृगावती ने कहा कि आपकी कृपा से। तब 'अरे! मैंने केवली की आशातना की' यह सोच कर बार बार खमाती हुई चन्द्रना मिच्छा मि दुक्कडं देने लगी और उसे भी केवलज्ञान प्राप्त हुआ। . इस तरह भव्य जीवों को भी मिच्छा मि दुक्कडं देना चाहिये। परन्तु कुम्हार और चेले की तरह नहीं करना चाहिये। जैसे कि एक लघु शिष्य किसी कुम्हार के धूप में सूखते हुए बर्तनों को कंकर मार कर फोड़ने लगा। कुम्हार ने कहा कि महाराज! बर्तन मत फोड़िये। तब शिष्य ने कहा कि मिच्छा मि. दुक्कडं। कुम्हार ने जाना कि अब यह बर्तन नहीं फोड़ेगा। पर शिष्य तो पुनः कंकरों से बर्तन फोड़ने लगा और कुम्हार हाँक मारे तब मिच्छा मि दुक्कडं देने लगा। . यह देख कर कुम्हार ने भी एक कंकर ले कर उस शिष्य के कान पर रख कर कान मसला। तब शिष्य ने कहा कि अरे! कान दुखता है। कुम्हार ने कहा कि मिच्छा मि दुक्कडं। इस तरह बार बार वह कान मसलता जाता और मिच्छा मि दुक्कडं देता जाता। ... इस तरह ऐसा मिच्छा मि दुक्कडं देने से कार्यसिद्धि नहीं होती। बार बार पाप करना और बार बार मिच्छा मि दुक्कडं देना काम नहीं आता। अलिया-गलिया करने पर सासु-दामाद का दृष्टान्त अन्तरंग शत्रुता न मिटे तो भी व्यवहारशुद्धि रखने के लिए सासु-दामाद की तरह अलिया-गलिया तो अवश्य करना चाहिये। एक वृद्ध स्त्री थी। उसके पास द्रव्य बहुत था, पर उसके पुत्र नहीं था। वह स्वयं विधवा थी और बहुत लोभी व कंजूस थी। वह धन का संग्रह करती थी, पर कुछ खाती नहीं थी। उसके एक पुत्री थी। उसका विवाह उसने एक कुलीन लड़के के साथ किया, पर स्वयं लोभी होने के कारण दामाद को दहेजप्रमुख कुछ नहीं दिया। इससे दामाद नाराज हुआ। होली-दीपावली प्रमुख किसी भी पर्व पर वह भोजन के लिए नहीं आया। लोग उस वृद्धा स्त्री से कहने लगे कि हे पापिनी! यह तेरा एक ही दामाद है। उसे भी तू भोजन नहीं कराती? तेरे पुत्र तो है नहीं, फिर तेरा यह धन कौन खायगा?