________________ श्री कल्पसूत्र-बालावबोध (445) और एक हजार राजकुमारों ने दीक्षा ली। फिर शिष्यमंडल सहित वहाँ से विहार कर आषाढ़भूति अपने गुरु के पास आये। गुरु ने भी भावना भाते हुए केवलज्ञान प्राप्त किया। जैसे आषाढ़भूति मुनि ने रूप परिवर्तित कर के कपट से मोदक वहोरे, वैसे अन्य साधुओं को मायापिंड ग्रहण नहीं करना चाहिये। लोभपिंड पर सिंहकेसरिया साधु का दृष्टान्त चंपानगरी में उत्सव के दिन एक साधु ने मासखमण के पारणे में अभिग्रह लिया कि आज सिंहकेसरिया मोदक ही वहोरना। फिर वह घर घर घूमा, पर सिंहकेसरिया मोदक कहीं नहीं मिले। इससे मुनि का मन गाफिल हो गया। वह आधी रात तक घर घर धर्मलाभ देते घूमा। लोभ के वश से रात की खबर भी नहीं रही। फिर किसी एक श्रावक के घर जा कर धर्मलाभ दिया। वह श्रावक गंभीर और माता-पिता के समान था। उसने रात के समय धर्मलाभ सुन कर विचार किया कि किसी कर्म के वश से साधु का मन डगमगा गया है। ऐसा जान कर वह उठा और उसने मुनि को वन्दन किया। फिर उसने देखा तो साधु महातपस्वी दिखाई दिया। श्रावक ने पूछा कि महाराज! आपको क्या चाहिये? मुनि ने कहा कि सिंहकेसरिया मोदक खपते हैं। तब श्रावक ने कहा कि हमारे घर में मोदक बहुत हैं। इतना कह कर वह सिंहकेसरिया मोदक से भरा थाल ले आया। फिर उसने मुनि को मोदक वहोराये। .फिर श्रावक ने पूछा कि हे स्वामिन्! पुरिमार्द्ध के पच्चक्खाण का समय आया कि नहीं? मुनि ने आकाश में देखा, तो निर्मल तारों और नक्षत्र की श्रेणी सहित चन्द्र दिखाई दिया। इससे मुनि का चित्त ठिकाने आ गया। फिर मुनि ने पश्चात्ताप किया कि अरे! धिक्कार है मुझे! मैंने यह क्या कर डाला? रात को गोचरी करने निकला? मेरा साधु का आचार कहाँ गया? इस तरह पश्चात्ताप करते हुए नगर के बाहर जा कर सूत्रोक्त विधि सहित मोदक परठते हुए विचार करने लगे कि अरे! कर्म को जीतना बहुत मुश्किल है। मैंने यह गलत काम किया। धर्म की निन्दा करायी। इस तरह पश्चात्ताप करते हुए और शुक्लध्यान ध्याते हुए क्षपकश्रेणी पर चढ़ कर उस मुनि ने केवलज्ञान प्राप्त किया। जैसे इस मुनि ने लोभ के वश से सिंहकेसरिया मोदक वहोरे, वैसे अन्य साधुओं को लेना नहीं चाहिये।