________________ श्री कल्पसूत्र-बालावबोध (399) - एक दिन पाटलीपुर में धन सेठ के घर साध्वियाँ उतरी थीं। उन्होंने वज्रस्वामी के गुण और रूप का वर्णन किया। उसे सुन कर सेठ की पुत्री रुक्मिणी ने यह प्रतिज्ञा की कि मैं वज्रस्वामी को छोड़ कर अन्य किसी के साथ विवाह नहीं करूँगी। इतने में वज्रस्वामी भी पाटलीपुर आये। उन्होंने विचार किया कि मेरे रूप से लोग क्षुभित होते हैं, वे क्षुभित न हों इसके लिए अपना रूप सामान्य बना लेना चाहिये। फिर विद्या के बल से रूप संक्षेप कर के सामान्य रूप से वे धर्मदशना देने लगे। तब साधुओं ने लोगों के मुख से सुना कि गुरु की देशना तो अमृत जैसी है, पर रूप तो सामान्य है। यह बात वज्राचार्य को मालूम हुई। तब दूसरे दिन एक हजार दल का सुवर्णकमल रच कर वे उस पर बैठे और जैसा अपना मूलरूप था, उसी रूप में देशना दी। यह देख कर लोग विस्मित हुए। धनसेठ भी अपनी महारूपवती रुक्मिणी नामक पुत्री और एक करोड़ सुवर्णमुद्राएँ ले कर गुरु के पास आये और उन्हें भेंट करने लगे। गुरु ने कन्या को प्रतिबोध दिया। फिर धर्मज्ञान दे कर दीक्षा दी और उसे साध्वी बनाया। . एक बार वज्रस्वामी ने पदानुसारिणी लब्धि के बल से श्री आचारांग सूत्र के महापरिज्ञा नामक अध्ययन में से मानुषोत्तर पर्वत पर जाया जा सके, ऐसी आकाशगामिनी विद्या निकाली। फिर वे उत्तर दिशा में अकाल पड़ा जान कर श्रीसंघ को पट (वस्त्र) पर बिठा कर अन्य स्थान पर ले जाने के लिए तैयार हुए। इतने में शय्यातर ने कहा कि महाराज! मैं भी आपका साधर्मिक हूँ, इसलिए मुझे भी साथ ले चलो। तब उसे भी पट पर बिठा कर आकाश में रह कर चलते हुए जगह जगह श्री जिनचैत्यों को वन्दन कराते हुए ताकीद से वे महानसी नगरी में गये। वहाँ यद्यपि सुकाल था, पर वहाँ का राजा बौद्ध मतावलंबी था। उसने बौद्धदर्शनी भक्त लोगों के कहने से पर्युषण के दिनों में श्री जैनमंदिरों में फूल नहीं ले जाये जा सकें, ऐसी व्यवस्था की। यह देख कर संघ ने श्री वज्रस्वामी से विनती की कि महाराज! फूलों की बन्दी हो गई है। तब वज्रस्वामी ने कहा कि तुम लोग चिन्ता मत करना। मैं उसका उपाय