Book Title: Kalpsutra Balavbodh
Author(s): Yatindravijay, Jayantsensuri
Publisher: Raj Rajendra Prakashan Trust

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Page 425
________________ (392) श्री कल्पसूत्र-बालावबोध और भाई को देख कर हर्षसहित उन्हें वन्दन किया। फिर गुरु के पास आ कर कहा कि महाराज! हमारे साथ श्रीयक ने दीक्षा ली थी। उसे यक्षा ने उपवास कराया। इससे उसका स्वर्गवास हो गया। फिर यक्षा ने प्रायश्चित्त देने के लिए श्रीसंघ से कहा। तब श्रीसंघ ने काउस्सग्ग कर के शासनदेवी को सीमंधरस्वामी के पास भेजा। सीमंधरस्वामी के मुख से दो चूलिकाएँ ले कर शासनदेवी लौट आयी। इतना कह कर गुरु को वन्दन कर वे अपने स्थान पर गयीं। एक दिन श्री स्थूलिभद्रजी अपने ब्राह्मण मित्र के घर गये। वहाँ ब्राह्मण की स्त्री से पूछा कि मेरा मित्र कहाँ है? तब स्त्री ने कहा कि घर में खाने के लिए कुछ नहीं है, इसलिए गाँव में भिक्षा माँगने गये हैं। श्री स्थूलिभद्रजी ने ज्ञानबल से देखा, तो उसके घर में पितरोपार्जित बहुत धन भरा हुआ दिखाई दिया। ब्राह्मण को उसकी जानकारी न होने से वह भिक्षा माँगता था। फिर श्री स्थूलिभद्रजी ने अपनी दृष्टि से गड़े हुए धन का स्थान उसकी स्त्री को बता दिया और वहाँ से निकल गये। ब्राह्मण ने घर आ कर उसकी स्त्री के कहने से गड़े हुए धन का स्थान जान लिया और विचार किया कि पक्के प्रमाण के बिना मुनिराज दृष्टि देते नहीं हैं। इसलिए उसने जमीन खोद कर देखा, तो उसमें से बहुत धन निकला। उसके योग से वह ब्राह्मण सुखी हुआ। इस तरह एक सिंह की विकुर्वणा की और दूसरा ब्राह्मण को धन दिखाया। ये दो अनुचित कार्य कर के श्री स्थूलिभद्रजी गुरु के पास वाचना लेने आये। तब गुरु ने कहा कि पूर्वोक्त दो काम करने से तुम वाचना के अयोग्य हुए हो। फूटे हुए बर्तन में दूध रहता नहीं है। इसी प्रकार तुम्हें भी अब वाचना नहीं दी जा सकती। यह सुन कर स्थूलिभद्रजी उदास हो गये। उन्होंने श्रीसंघ से विनती की कि मुझसे भूल होने के कारण अब मुझे गुरु वाचना देते नहीं हैं। तब श्रीसंघ ने मिल कर भद्रबाहु गुरु से स्थूलिभद्रजी को वाचना देने के लिए विनती की। इस कारण से गुरु ने उन्हें चार पूर्व मूल पाठ से पढ़ाये, पर अर्थ नहीं सिखाया और यह भी कहा कि ये चार पूर्व तुम

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