________________ श्री कल्पसूत्र-बालावबोध (363) भगवान के पास जाने के लिए ज्यों ही कदम बढ़ाया, त्यों ही उन्हें तुरन्त केवलज्ञान उत्पन्न हो गया। फिर वे केवलियों की पर्षदा में जा कर बिराजमान हुए। ब्रह्मभोजन और यज्ञोपवीत की प्रवृत्ति एक दिन भगवान का अष्टापद पर्वत पर समवसरण हुआ। उस समय भरत महाराजा ने सोचा कि मुझसे अन्य तो कुछ नहीं होता, पर इन सब साधु-मुनिराजों को आहार वहोराऊँ, तो अवश्य कुछ लाभ मिलेगा। यह सोच कर पाँच सौ गाड़ियों में सुखड़ी भर कर वे अपने साथ ले गये। फिर उन्होंने भगवान से निवेदन किया कि हे स्वामिन्! आज के दिन इन सब साधुओं को आहार कराने का आदेश मेरे घर हो जाये, तो बहुत अच्छा होगा। तब भगवान ने कहा कि आधाकर्मिक राजपिंड साधुओं को लेना कल्पता नहीं है, इसी प्रकार सामने लाया हुआ आहार भी साधुओं को कल्पता नहीं है। यह सुन कर, भरतराजा ने जान लिया कि मैं तो सब प्रकार से भक्तिरहित हुआ। इस तरह वे चिन्ता करने लगे। यह देख कर इन्द्र महाराज ने पूछा कि हे प्रभो! अवग्रह कितने हैं? तब भगवान ने कहा कि अवग्रह पाँच हैं। उनमें एक इन्द्र का अवग्रह, दूसरा राजेन्द्र का अवग्रह, तीसरा गृहपति का अवग्रह, चौथा सागारिक का अवग्रह और पाँचवाँ साधर्मिक का अवग्रह। ये पाँच अवग्रह जानने चाहिये। यह सुन कर इन्द्र ने कहा कि मैं आपके सब साधुओं को मेरे सब क्षेत्रों में सुखपूर्वक विचरने की आज्ञा देता हूँ। तब भरत महाराज ने कहा कि मैं भी मेरी छह खंड पृथ्वी पर आपके सब साधुओं को विचरने की आज्ञा देता हूँ। ऐसा कहने से भरत को बहुत सन्तोष हुआ। फिर भरत ने इन्द्र से पूछा कि इस आहार का अब क्या किया जाये? तब इन्द्र ने कहा कि जो तुमसे अधिक गुणवान हों, उन्हें यह आहार खिला दो। फिर भरत ने वह आहार श्रावकों को जीमाया। इसके बाद भरत महाराजा सदा सर्वदा श्रावकों को जीमाने लगे। कुछ काल बाद जब जीमने