________________ (362) श्री कल्पसूत्र-बालावबोध लगे कि यह तो मेरा राज्य ले लेगा। क्या यह कोई चक्रवर्ती हुआ है? यह सोच कर उन्होंने अपने हाथ में चक्र ले कर अपनी प्रतिज्ञा का भंग कर, उसे घुमा कर बाहुबली पर छोड़ा। पर अपने गोत्र में चक्र चलता नहीं है। इस कारण से वह चक्र बाहुबली को तीन प्रदक्षिणा दे कर पुनः भरत के हाथ में आ गया। इस तरह भरत ने अपनी प्रतिज्ञा का भंग किया, तब बाहुबली को बहुत गुस्सा आया। वे मुक्का तान कर भरत को मारने दौड़े। तब देवों ने कहा कि आप थोड़ा विचार कीजिये। यह सुन कर बाहुबली ने सोचा कि धिक्कार है इस राज्य को, जिसके कारण से मेरे मन में बड़े भाई को मारने का विचार हुआ। इस तरह वैराग्य प्राप्त कर बाहुबली ने भरत को मारने के लिए जो मुट्ठी उठायी थी, उसी मुट्ठी से अपने मस्तक का लोच कर के दीक्षा ग्रहण की। देवों ने उस समय पुष्पवर्षा की। फिर बाहुबलीजी ने वहाँ से विहार किया। बाहुबलीजी के चले जाने से भरतराजा विलाप करने लगे कि मेरे सब भाई दीक्षा ले कर जाते रहे। फिर बाहुबली के पुत्र सोमयश को तक्षशिला का राज्य सौंप कर भरतराजा अयोध्या नगरी में आये।। विहार के दौरान बाहुबली के मन में विचार आया कि मेरे छोटे अठानबे भाइयों ने श्री ऋषभदेवजी के पास पहले दीक्षा ली है और वे केवली हुए हैं, इसलिए यदि अब मैं भगवान के समवसरण में जाऊँगा, तो छोटे भाइयों को वन्दन करना पड़ेगा। इसलिए मैं यहीं काउस्सग्ग में रह कर केवलज्ञान प्राप्त कर के फिर भगवान के पास जाऊँगा। यह सोच कर मन में अभिमान धारण कर के वे वहीं काउस्सग्ग ध्यान में खड़े रहे। इस तरह एक वर्ष बीत गया। बाहुबलीजी के सिर पर बेलें चढ़ गईं। उन्हें प्रतिबोध देने के लिए श्री ऋषभदेवस्वामी ने ब्राह्मी और सुन्दरी इन दोनों साध्वियों को भेजा। उन्होंने वहाँ जा कर बाहुबली से कहा कि हे वीर! हे भाई! तुम हाथी से नीचे उतर जाओ। हाथी पर सवार होने से केवलज्ञान नहीं होगा। उनके ये बोल सुनते ही बाहुबली ने सोचा कि ये साध्वियाँ कभी झठ तो नहीं बोलेंगी और हाथी तो मेरे पास नहीं है। पर हाँ, अहंकाररूप हाथी पर मैं सवार हूँ। यह सोच कर अभिमान का त्याग कर उन्होंने