________________ (384) श्री कल्पसूत्र-बालावबोध चारित्रपर्याय में और आठ वर्ष युगप्रधानपद में एवं सर्वायु नब्बे वर्ष की भोग कर स्वर्गलोक गये। यह छठा पाट जानना।६ श्री स्थूलिभद्रजी और वररुचि का संक्षिप्त वृत्तान्त श्री संभूतिविजयजी और श्री भद्रबाहुस्वामी के पाट पर आर्य स्थूलिभद्रजी गौतम गोत्रीय हुए। उनका संबंध इस तरह है पाटलीपुत्र नगर में नौवाँ नन्द राजा राज करता था। उसके शकटाल नामक प्रधान था। शकटाल के लाछलदे नामक पत्नी से दो पुत्र हुए- एक स्थूलिभद्र और दूसरा श्रीयक। एक दिन वररुचि नामक एक ब्राह्मण राजा के पास आया। उसने एक सौ आठ काव्य नये रच कर सुनाये। फिर वह ब्राह्मण एक सौ आठ काव्य नये नये बना कर नित्य राजा को सुनाने लगा। उस समय यदि प्रधान उसकी प्रशंसा करता, तो राजा उसे दान देता, अन्यथा नहीं देता। पर प्रधान वरुरुचि को मिथ्यात्वी जान कर उसकी प्रशंसा नहीं करता। तब वररुचि भट्ट ने प्रधान की स्त्री लाछलदे से विनती की। स्त्री ने प्रधान से कहा कि उस बेचारे भट्ट को कुछ तो दिलवा देना। तब प्रधान के मन में यद्यपि कुछ न दिलाने का विचार था, पर स्त्री के कहने से उसने राज्यसभा में कहा कि ये काव्य अच्छे हैं। तब राजा ने सन्तुष्ट हो कर उसे नित्य एक सौ आठ सुवर्णमुद्राएँ देना शुरू किया। इस तरह देते हुए बहुत दिन बीत गये, तब प्रधान ने जाना कि इस तरह तो सब धन नष्ट हो जायेगा। यह सोच कर उसने एक योजना बनायी। उसके सात पुत्रियाँ थीं, जो बड़ी बुद्धिमान थीं। पहली पुत्री यदि कोई काव्यप्रमुख एक बार सुन लेती, तो उसे वह मुखपाठ हो जाता और वह पुनः वह पाठ सुना देती। इसी तरह दूसरी पुत्री दो बार सुनती तो उसे मुखपाठ हो जाता। तीसरी तीन बार, चौथी चार बार इस तरह यावत् सातवीं सात बार सुन कर पाठ पुनः कह सुनाती। ये सातों पुत्रियाँ महाचतुर थीं। प्रधान ने उन्हें सिखा दिया कि तुम राजसभा में कह देना कि ये काव्य पुराने हैं और ये हमें आते हैं। ऐसा कह कर